इतिहास साक्षी है कि जब-जब मनुष्य का गुरू से, ईश्वर से, प्रकृति से विश्वास समाप्त हुआ है, तब-तब उसके जीवन में निराशा व हताशा का विस्तार होता है और इस अविश्वास का मुख्य कारण है- नास्तिकता की वृद्धि। " " "
और जब एक शिष्य के जीवन में इस प्रकार की घटना घट ित होती है, तब वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त क रता है, तब अद्वैत भाव आने पर उसकी स्वतः पूर्ण कुण ्डलिनी जागरण की क्रिया सम्पन्न होती है, फिर वह उस कदम्ब के वृक्ष का रूप धारण कर सकने में सक्षम हो पाता है, जिसकी छाया त ले समस्त विश्व, समस्त मानव जाति और यह समाज सुख-शा ंति का अनुभव करता है, ज्ञान की शीतलता प्राप्त क रता है, ब्रह्मत्व की चांदनी में दमकते हुये अमृत त्व के मानसरोवर में अवगाहन करता है।
हजाों-हजाों व~ से से संत, महात्मा, ऋषि देव इस सृष सृष्टि में अवत अवत हुये हुये औ उनउन संस संसार के को चैतन चैतन सschieden स में जग की कsprechung िय की है है।।।।।।।।। है।।।।।। स सsprechung ये सभी संत, महात्मा निनिन्त सद्ज्ञान के लिये सांसािक व्यक्तियों को जगाते हते हैं लेकिन अधिकांश सुनन नहीं नहींाहते औ उपेकsal ष क क अधिक है है।। नहीं चाहते औ उपेक्षा क क है है।। नहीं चाहते औऔ उपेकsprechungswissen फिर तो उन्होंने हंसना भी बंद कर दिया। फिर तो कोई उसकी बात पर ध्यान ही न देते हैं। लोग बहरे हो गये। लेकिन वे अपनी क्रियायें निरंतर गतिशील रखते हईंे
वर्तमान समय में यदि हम किसी भी गुरू के समीप जायें, तो स्पष्ट होता है कि उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रों-गीता अथवा रामायण के ज्ञान-भाव को व्यवहारिक स्वरूप में आत्मसात् किया हुआ है जो सहज-स्वाभाविक है गुरू में विशाल ज्ञान की " "
" " " जीवन भर बाहर, बाहर और क्यों? "
" अगअग बुबु हूँ तो मैं बु बु बु हूँ हूँ औ अग यह स्म आ जाए कि मैं बु बु बु बु हूँ तो बदलाहट की जा सकती है है है है है है है है है है है।। बु बु बु।। है है है है है है है है है है है है है है है है है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।। बु बु बु बु बु बु बु बु। है है है. जीवन को आप कैसे बदल सकते हैं? बिलकुल ही गलत! " एक. वाली परम्परायें पैदा होगी।
हम सब उस घेरे में खड़े हैं। " " " " "
साथ ही भजन और मंत्र का भाव, जब जीवन में उतरेगा तब ही रोम प्रतिरोम चैतन्य हो सकेगा इस तरह की निरन्तरता बनाते हुये क्रियाशील रहेंगे तब हम संसार की भीड़ का हिस्सा नहीं होगे वरन स्वयं में ही इतनी उच्चता आ जायेगी कि जहाँ भी हम खड़े हो जायेगे स्वतः ही हमको देखने-सुनने के लिये श्ोता इक्कठे हो जायेंगे। तात्पर्य यही है कि आलोचना, ईर्ष्या, दूषितता व विषमता रूपी बुरे संस्कारों से जीवन में सुख और आनन्द की प्राप्ति नहीं होती, नित्य प्रतिदिन उक्त तरह की कुत्सितता रूपी क्रियाओ व भावना से निरन्तर अर्नगल संस्कारो की वृद्धि होती रहती है उसी के फलस्वरूप हम मलिनमय जीवन व्यतीत करते रहते है। " " " "
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