" " " जो जानता हैं, उन्हें प्भु का नाम लेने की कोई कोई ज ज ज ज ज ज नहीं है।।। जो पहचानते हैं, उनके लिये प्रार्थना भी व्यर्थ है है और जिन्हें पता नहीं है, वे कैसे प्रार्थना करें ! वे कैसे पुकारे उसे ! वे कैसे स्मरण करें! "
" औऔ अंधेअंधे र र में जलते हुये एक छोटे से. " औऔ आपके गांव में घ घ के के पास छोटा सा जो झ झा बहता है, उसे क्या पता होगा कि दू के साग से से जुड़ा है! औऔ साग सूख जायें तो यह झझा भी तत्काल सूखकाप्त हो जायेगा। "
आदमी भी ठीक ऐसी ही स्थिति में है। " ऋषि एक यात्र पर निकले थे इस सूत्र के साथ। " जिसका पता नही है अभी, उसी के चरणों में सिर रख रहथ ी यह कैसे संभव हो पायेगा? इससे समझ लें, क्योंकि जिसे भी साधना के में प्वेश कका है उसे इस असंभव को संभव क क का पड़ता है।
" " उसे उसके समक्ष प्रार्थना करनी होगी, जो हम हो हे ते ते " " लेकिन इस प्रार्थना से हमारे पैरों में बड़ा बत ज आ बड़ा बत आ आ बड़ा यह प्रार्थना परमात्मा के लिये नहीं है, अपने हि यलै परमात्मा के प्रति नहीं है, अपने ही लिये हैं।
" " "
" जैसे कोई द्वार खुल जाता है, जो बंद था। " " आप कुछ दूसरे नहीं हो गये होते हैं.
" वही आदमी है, वही मकान है, वही जगह है। " और मार्ग अगर दूर तक दिखाई न पड़े तो चलना बहुत मुश "
दीये की ज्योति बुझ जाती है, मिट नही जाती। दीये की ज्योति खो जाती है, समाप्त नहीं हो जाती। " " असीम से आती है और फिर असीम में चली जाती है। "
" उद्गम और अंत सदा एक हैं। जहां से जन्म पाता है, वहीं समाप्त, वहीं, वहीं विदा हो जाता है।। आने के द्वार एक ही है। ज्योति खो जाती है वहीं, जहां से आती है। ज्योति के इस खो जाने को मैं कहता हूं दीये का निर् "
परमात्मा से प्रार्थना करनी हो, तो कुछ और कहना चाय परमात्मा के लिये शांति के पाठ का क्या अर्थ हो सकक? परमात्मा शांत है। लेकिन इसे कहा हैं, शांति पाठ। जानकर कहा है, बहुत सोच -समझकर। " और हम अशांत हैं और अशांत रहते हुये यात्र नहीं हो को " "
असल में जितना अशांत मन, उतना परमात्मा से दूर। अशांति ही डिस्टेंस है, दूरी है। जितने आप अशांत हैं, उतना ही पफ़ासला है। " " नहीं, तब आप परमात्मा में, परमात्मा ही हैं। " तब कहना ठीक है कि आप परमात्मा हैं। या तो फिर आप हैं, और या परमात्मा है। "
ध्यान रहें जहां भी अर्थ होता है, वहां सीमा आ जाती अर्थ ही होता है सीमा। जब भी अर्थ होता है, तो उससे विपरीत भी हो सकता है। सभी शब्दों के विपरीत शब्द होते हैं। ओम के विपरीत शब्द बताईयेगा? " लेकिन ओम के विपरीत शब्द कभी सुना? अगर अर्थ हो तो विपरीत शब्द निर्मित हो जायेगा। लेकिन ओम में कोई अर्थ ही नहीं। यही उसकी महत्ता है।
लोग कहते है, मेरी वाणी मेरे मन में स्थिर हो जाये। कभी आपने सोचा, आप सी सी बातें कहते हैं जो आप कहना ही नहीं चाहते थे।।। वह बड़ी अजीब बात है। जो आपने कभी नहीं कहनी चाही थीं, वे भी आप हैं हैं आप ही ही कहते हैं।। " यह वाणी आपकी है! आप बोलते हैं वाणी से कि कुछ और बोलता है
" " " हमाे मन- हम बोले चले जाते हैं, जैसे यंत्र बोल रहा हो। एक शब्द भी शायद ही आपने बोला हो जो मन से एक हो। " किसी. जेब काटना मैंने कहा कि बहुत अतिशयोक्ति न हो जाये " " तो ऐसा आदमी अपने को भी कभी न जान पायेगा। "
" और मैं जब न बोलूं तो मन भी न रह जाये। ठीक भी यही है। जब आप चलते हैं तभी आपके पास पैर होते हैं। आप कहेंगे, नहीं जब नहीं चलते हैं तब भी पैर होते है लेकिन उनको पैर कहना सिर्फ कामचलाऊ है। पैर तो वही है जो चलता है। आंख तो वही है जो देखती है। कान तो वही है जो सुनता है। " अंधे का मतलब होता है, आंख नहीं। , "
आंख का जब उपयोग होता है तभी आंख आंख है। एक पंखा रखा हुआ है, तब भी हम उसे पंखा कहते है। कहना नहीं चाहिये। पंखा हमें उसे तभी कहना चाहिये जब वह हवा करता हो। नहीं तो पंखा नहीं कहना चाहिये। तब वह सिर्फ बीज रूप में पंखा है। " बस इतना ही। " " " कोई पूछे कि क्या कर रहे हैं आप, तो रूक जाते हैं। क्या करते थे आप? बैठे-बैठे चलने कि कोशिश क हे हे थे या टांगे आपकी पागल हो गई हैं? ठीक ऐसे ही हम बोलते रहते हैं। " बाहर नहीं बोलते तो भीतर बोलते हैं। दूसरे से नहीं बोलते, तो अपने से बोलते रहते हैं।
" भी अनंत-अनंत जन्मों में, कभी भी जब उसकी कृपा हो मिल जाये, तो औ औ औ यहीं मिल सकत सकता है।। "
" अभीसिप्ता तो पूर्ण चाहिये, लेकिन जल्दबाजी नहऀंी " अनंत-अनंत जन्मों के बाद भी प्भु का मिलन हो, तो बहुत जल्दी हो गया। कभी भी देर नहीं है। " जो मंजिल मिलती है, उस प पहुंचने के लिये कितना भी भटकाव ना कुछ हैं।।।
सन्यासी के कंधे प जो झोली टंगी होती है है उसका नाम है कन्धा। वस्तुतः सन्यासी की जो झोली है, वह तो धैर्य है। और धीरज की इस गुदड़ी में बड़े हीरे आ जाते हैं। लेकिन धैधै्य तो हमाे भीतभीत जज ज स भी नहीं होता औऔ क्षुद्र के लिये हम प्तिक्षा भी क लें लें लें विविाट के हम ज भी पschieden तिकाष नहीं नहींकाट चचाहते ।ाहते एक व्यक्ति साधाण सी शिक्षा पाने विश्वविद्यालय की यात्र पप निकलता है, तो सोलह-सत्ह वव्ष स्नातक होने लिये वsprechung पता कुछ भी नहीं, कचरा लेकर घर लौट आता है।
" " " औऔ शायद हमाी चाह इतनी कम हम प्तीक्षा कक को तैयार नहीं।। " एक. . " " "
" " " oder? क्या छोड़ेगे आप? छोड़ने को है क्या आपके पास? आपका कुछ है ही नहीं, जिसे आप छोड़ दें। सभी कुछ उसी का है। उसी का उसी को देकर सौदा करेंगे? है क्या हमारे पास? शरीर हमारा है, जमीन हमारी है, क्या है हमारे पास? " " वह है।
तो धन तो हो भी सकता है आपका, लेकिन आप बिलकुल नहीं हैं।।।। क्योंकि कह सकते हैं, धन मैंने कमाया। " आपका इसमें कुछ भी नहीं है। इसलिये देंगे क्या? मापा, तिब्बत का एक अद अद्भुत ऋषि अपने गु गु के के पास पहुंचा, तो गु गु ने कहा, तू द दान क दे दे दे।।। गु ने ने कह प दान क दे दे।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु गु।।।।।। दे दे क क क क क क क क क क क क क क क क क क क मारपा ने कहा, लेकिन मेरा अपना कुछ है कहां? गुरू ने कहा, तो तुम कम से कम अपने को समर्पित कर दोर तो मारपा ने कहा, मैं! मैं तो उसका ही हूं। समर्पण करने के, उसकी चीज उसी को लौटाकर, कौन सा गौर! तो उसके गुरू ने कहा, भाग जा, अब दुबारा इस तनफ़ मत आस क्योंकि जो मैं तुझे दे सकता था, वह तो तुझे मिल ही वह तेरे पास है ही। मापा ने कहा, मैं सिसि्फ कोई जानने वाला पहचान ले इसलिये आपके च च में आया हूं।।।। आपके आपके च च च आया हूं। " आपने कह दिया, मुहर लगा दी।
" उस दिन को चाहिये, जो कह दे कि हां, हो गया। " पहचान नहीं होती कि जो हो गया है, वह क्या है। " " वह गवाही बन जाये, वह साक्षी बन जाये।
" और मांग हमारी है कि परमात्मा मिले। प्रतीक्षा तो करनी पडे़गी। धैर्य तो रखना पडे़गा और अनंत रखना पड़ेगा। ऐसा नहीं कि चूक जाये कि दो-चार दिन बाद फिर हम पूछ न " अधैर्य, अंकुर कभी नहीं निकलेगा। यह चार दपफ़े उखाड़ने में अंकुर कभी नहीं निकलेगां "
" हां, पानी डालें जजज प प अब को को उखाड़-उखाड़क मत देखते हें अभी तक बीज फूटा, नहीं फूटा! नहीं तो फिर कभी नहीं फूटेगा, बीज खराब हो जायेगा। तो धsprechung बोते जायें, सींचते जायें। जब अंकुर निकलेगा, पता चल जायेगा। जल्दी ना करें, बार-बार उखाड़कर मत देखें।
एक सन्यासी था, अपने गु गु गु के आश्म में बाह वव्षों तक सेवा में था। बारह वर्षों तक उसने यह भी न पूछा कि मैं क्या करूंंं " तो सन्यासी ने कहा, प्तीक्षा कका हूं, जब आप पायेंगे कि मैं योग्य हूं, तो खुद ही कह देंगे।।।
यह सन्यासी का लक्षण है। " " " तो सन्यासी कहता है, जब मे मे पात्ता होगी, अब आप कि क क्षण आ गया कुछ क का, तो आप ही कह देंगे।। मैं राह देखता हूं। " अब मैं बिल्कुल शांत हो गया हूं। यह बारह वर्ष कुछ किया नहीं, बैठकर बस प्रतीक्षा की की तो मैं एकदम शांत हो गया हूं। भीतर कोई विचार नहीं रहे हैं।
उदासीनता अचुनाव है। उदासीनता का अअ्थ है कि द्वंद्व में भी चुन चुनाव नहीं कक क क क क क।। " न हम मन के पहले हिस्से की सुनते हैं हैं हम दूस दूस हिस्से की सुनते हैं।।। हम दूर खड़े होकर दोनों हिस्सों को देखते हैं। न हम यह किनारा चुनते हैं, न वह किनारा चुनते हैं। हम कुछ चुनते ही नहीं। अचुनाव उदासीनता है। " मन एक से जीत नहीं सकता। मन दो होकर ही जीता है।
" जहां आकर्षण होता है, तत्काल विकर्षण वहीं पैदा हहीं पैदा हो मन का एक हिस्सा कहता है, बायें चलो, दूसदूसा तत्काल कहता है, दायें चलो।। मन सदा ही द्वंद्व खडा करता है। " " यही तो हो रहा है पूरे वक्त।
मन द्वंद्व में जीता है। आप ऐसी कोई चीज चाह नहीं सकते जिसके प्ति एक दिन चाह पैदा न हो।।। आप ऐसा कोई प्ेम नहीं क क सकते सकते आपको किसी दिन घृणा न जन्म जाये। आप ऐसा कोई मित्र नहीं बना सकते, जो दिन शत्ु न हो जाये। " " हम जीते हैं ऐसे ही । " बाहर की जिंदगी में ठीक भी है। काम करना मुश्किल होगा। " "
इसलिये फर्क को ख्याल में ले लें। बूढ़े के पास विचार तो बहुत हैं हैं हैं विचाशीलता कम होती हैं।। " विचार आ जाते हैं, वे नियमित हो गये हैं। " फिर धीरे-धीरे विचारों की पर्तें जमती जायेगी। " विचार रहेंगे उसके पास। जब. क्योंकि बहुत पत्ते झील पर जमा हो जाते है। बच्चे खाली झील की तरह जिस पर पत्ते अभी नहीं है
अपने विचार के प्रति भी तटह दूसरे के प्रति तो हम तटस्थ होते ही हैं। " और प्रतिदिन, आदतवश नहीं, होशपूर्वक। क्योंकि कल का कोई विचार आज काम ंनहीं पड़ सकता हैा सब बदल गया होता है, विचार स्थिर हो जाता है, जड़ हो हो जड़ हो हो वह पत्थर की तरह भीतर बैठ जाता है। "
विचार भी पत्थरों की तरह भीतर जमा होते चले जाते है जिंदगी बहुत तरल है, विचार बहुत ठोस हैं। " औऔ जैसा राजकुमार के ने बहुत पत्थ डाल दिये, विचार सब नहीं होते होते आपके तो थोडे़ होते हैं हैं ब बाकी तो दूस दूस आप में डड देते हैं।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ब ब ब ब तो तो तो दूस दूस में ड देते हैं।। ब बाकी तो दूस में ड देते हैं। ब बाकी तो दूस में ड देते हैं। ब बाकी तो दूस में ड देते हैं हैं ब बाकी तो दूस में ड ड ड ड देते आखि आखि आप के घड़े मे पत पत्थ निकलते हैं वे सब आपके भी नहीं होते हैं।।।।। सब डाल हे है, पत्नी पति के घड़े पति पत्नी के घड़े में।।। वे कंकड़-पत्थर जमा हो जायेंगे। उनका नाम विचार नहीं है। विचारों के संग्रह का ना होना विचार नहीं है।
" " सोचकर चलने का अर्थ जड़ता नहीं है।
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