" अपने स्वार्थ और परमार्थ दोनों की भावनाओं से व्यक्ति यह विचार नहीं कर पाता कि जीवन में उसे क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये, क्या उचित है, क्या अनुचित हैं, और उस समय कभी-कभी ऐसा भाव आता है, कि क्या हमारा जीवन अपने-आप में एक क्षुद्मय अस्तित्व व्यतीत क क के है है या जीवन को पूपू्णता देने के है है।।।।। जीवन जीवन जीवन.
आज हर तरफ विज्ञान हावी हो रहा है, और दूसरी तरफ जो हमारे खून में ज्ञान की गरिमा है, जो ज्ञान के कण हैं, वे भी बार-बार हम पर हावी हो रहे हैं, कि हमें श्रेष्ठ व्यक्तित्व के रूप में पूर्णता को प्राप्त करना है। " हमारे इन धमनियों में वशिष्ठ का खून प्रवाहित हो रहा है, जो निश्चय ही हमारे पिता के शरीर में भी प्रवाहित है, अर्थात हमारे शरीर में पचास-सौ पीढ़ी पहले का भी रक्त है, और यह रक्त निश्चय ही ऋषियों का रक्त हैं— इसलिये ज्ञानश्चेतना " तकि हम एक पंछी के तरह उड़ने की कला सीख सकें। " तो उसने अपना संदेशवाहक भेजा। अपने हाथों पत्र लिखा, मोहर लगायी, लिफाफा बंद कियि
संदेशवाहक पत्र लेकर दूर की यात्रा पर निकल गया। " दार्शनिक ने पत्र को बिना देखे ख ख दिया औऔ कहा, पहले यह सिद सिद्ध होना जजू है है सम सम्राट ने पत्र है है य किसी औ औ औ ने ने? " Was ist das? मेरे वस्त्र देखें। मैं संदेशवाहक हूं सम्राट का। दार्शनिक ने कहा, वस्त्रों से क्या होगा? वस्त्र तो कोई भी पहन सकता है, धोखा दे सकता है। क्या सम्राट ने स्वयं ही तुम्हें अपने हाथों यह पत्र दिया है? संदेशवाहक भी थोड़ा संदिग्ध हुआ। " " सीधा तो मुझे नहीं मिला है। "
इतनी चर्चा होते-होते तो संदेशवाहक भी संदिग्ध हो हो हो पत्र की तो जैसे बात ही भूल गया। दोनो निकल पड़े कि तक. दोनों खोजने लगे। " उसने कहा मैं सम्राट का सैनिक हूं। क्या मेरे वस्त्रें को देख कर तुम नहीं पहचानते? " वस्त्रें से क्या होता है? तुमने सम्राट को अपनी आंखों से देखा है?
" उस दार्शनिक ने पूछाकि तुमने सेनापति को आंख से देख देखा है? उसने कहा यह भी खूब! " मैं एक छोटा सैनिक हूं। उतनी पहुंच मेरी नहीं। महल के दरवाजे मेरे लिये बंद हैं। दोनों खिलखिला कर हंसे-संदेशवाहक और दार्शनिक। और कहा तुम भी हमारे साथ सम्मिलित हो जाओ। "
" बनो और मैं तुम्हें राज्य का महागुरू बना देना चाह लेकिन वह पन्ना तो पढ़ा ही नहीं गया। किसी से पूछने की जरूरत न थी। "
" ये वचन. कौन सिद्ध करेंगा? कैसे यह सिद्ध होगा? शब्द बंद पड़े रह जाते है। कितना कहा जाता है। लेकिन तुमने उसे सुना नहीं। " "
" एक बार एक पक्षी वातायन पर आकर बैठ गया। उसने गीत गुनगुनाया और उड़ गया। मैं उस पक्षी को देखता हा गया- मैं इतना ही कहता हूं कि संसार तुम्हारा वातायन है उस पर तुम बैठे हो उस पर तुम घर मत बना लो। . " "
" " " और न जाने कितने जन्म से तुम उड़े ही नहीं!
तुमने पंख नहीं फड़फड़ाये, कितना समय बीता गया, जब तुम खिड़की प प बैठे औ औ तुमने खिड़की को ही घ समझ लिया है। तुम द्वार को ही महल समझ कर रूक गये! " "
भगवान बुद्ध का अंत आ आ चुका था, सभी्य एकत्र हुये, शिष्यों के लिये उनका अंतिम संदेश था- हे मित्ें! जब तक तुम. लेकिन जिस दिन संगठित. ठीक.
" की ही नहीं, अन्य देशों का भी भाग्य विधाता बन गया। "
" सुबह सूरज की किरणों का साथ पाकर घास पर पड़ी ओस की बूंदें मोतियों की तरह चमक रही थी, बगीचे में लिली के फूल खिल रहे थे, पक्षियों की कलरव ध्वनि मन में संगीत की मिठास घोल रही थी, एक शिष्य ने पूछा-भगवन्! जीवन में सुख और सौंदर्य का रहस्य क्या है? " जो इन.
" जिसमें से सुगंध हमेशाप्रवाहित होती रहेगी। " जीवन में जो कुछ पूर्णता होनी चाहिये, वह तुम्हें प्राप्त ही नहीं होगी, तुम्हें जीवन में जो कुछ प्राप्त करना चाहिये, वह नहीं कर पाओगे, क्योंकि बाहरी सभ्यता तुम्हारे ऊपर बहुत अधिक प्रतिकुल दबाव डाल देती है, क्योंकि तुम हमेशा जल्दी में रहते हो, कोई. "
" मैं तुम्हें वहीं सिखाना चाहता हूं, मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि तुम्हाें अन्द भी वशिष्ठ, विश्वमित्र, गौतम ऋषि-मुनियों का ही हीschieden है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। क ही ही क क क क क क है।।। विश विश misseilen " 11 " "
" तुम मुक्त गगनके पक्षी हो। " तुम पैरों से चल रहे हो। " " " संतों ने, कबीर ने, नानक ने शब्द का उपयोग किया हु, सत सुरति का अर्थ है, स्मरण आ जाये। जो भूला है, उसका ख्याल आ जाये। तुमने कुछ खोया नहीं है, तुम सिर्फ भूले हो। खो तो तुम सकते भी नहीं। पक्षी भूल सकता है कि उसके पास पंख है, खो कैसे सक ााा? "
विवेकानंद जी की एक छोटी से कहानी कहा करते थे। " वह तो छलांग कर चली गयी। " उसे पहचान कौन कराये? सुरति कैसे मिले? "
तुम जिनके बीच बड़े होते हो वही तुम अपने आपको समझ हो।।।। क्योंकि तुम भूल जाते हो की तुम हो कौन औ वही भूल सिंह सिंह के बच्चे की।।। शेर का बच्चा तुमसे ज्यादा बुद्धिमान तो नहीं था! उसने समझा कि मैं भेड़ हूं। वह भेड़ों के बीच ही चलता, भेड़ों जैसा ही भयभीत होता, घास-पात खाता।
एक दिन सिंह ने देखा भेड़ों की कतार गुज ही थी थी इनके में में एक सिंह सिंह! बड़ा हैरान हुआ। यह असंभव घटना घट रही थी। न तो भेड़ उससे घबड़ा रही है, न वह भेड़ों को खा रहा ै ठीक भेड़ो भीड़. वह सिंह इस भेड़ों की भीड़ में आया। भेड़ों में भाग चीख-पुकार मच गयी। " क्योंकि भाषा भी तो तुम उनसे सीखते हो हो जिनके पास होते हो।।।। भाषा कोई जन्म साथ लेकर तो पैदा नहीं होता। भाषा भी सीखी जाती है। वह भी संस्कार है। " पैदा तो तुम खाली स्लेट की तरह होते हो।
उसने भेड़ों की भाषा ही जानी थी, वही सुनी थी, वही सही वह भी मिमि-याने लगा, रोने लगा, भागने लगा। यह नया सिंह भागा, बहुत मुश्किल से वह का बच्चा पकड़ में आया। पकड़ा तो वह गिड़गिड़ाने लगा, छूटने की आज्ञा चाह ननी घबड़ा गया, जैसे मौत सामने खड़ी हो गयी है। अब सिंह ने उस भेड़ सिंह से बहुत कहा कि नासमझ! तु भेड़ नहीं है! लेकिन वह कैसे माने? इसमें उसको कुछ जालसाजी दिखायी पड़ी। यह सिंह कुछ ऐसी बात समझा रहा है, जो सच हो नहीं सकती उसके जीवन भर के अनुभव के विपरीत है।
" " अगर उस भेड़ सिंह को भी भरोसा न आया तो आश्चह्य तो ी लेकिन यह दूसरा सिंह भी जिद्दी था। " " क्योंकि यह तो नित्य शाश्वत सनातन संबंध है। उस सिंह ने उसे घसीटते.
बहुत बा nächsten " जो भी उसने समझा-बुझा है, वह व्यर्थ हो जायेगा। जो भी उसकी धारणाये है, टूटेगी, खंडित होगी। सारे जीवन की प्रतिमा बिखर जायेगी। दर्पण के सामने आने से सभी डरते है। अपना चेहरा देखने से सभी डरते है। " तो वह सिंह भी डर रहा था। लेकिन गुरू माना नहीं। " मेरे और तेरे चेहरे पानी में देख, कोई फर्क है? जो मैं हूं, वही तु है। "तत्त्वमसि" यही उपनिषद कह हे हैं कि जो मैं हूं वही तुम हो ज ज ज भेद नहीं है।।।। डरते-डरते उस सिंह ने देखा, लगा जैसे कोई सपना देखहत क्योंकि हम उसी का यथा nächsten नया तो सपना ही मालूम पड़ता है। भरोसा न आया, आंख मीड़ी होगी, पुनः देखा होगा। " कोई जादूगर तो नहीं! कोई हिप्नोटिस्ट तो नहीं है!
" कोई तुम्हें धोखा तो नहीं दे रहा है? कोई तुम्हें ऐसी बात तो नहीं समझा रहा जो सच नही है? क्योंकि तुम्हारे अनुभव के प्रतिकूल है। लेकिन. भेड़ की खल तो ऊपर थी, उसे तो हटना ही था। संस्कार तुम्हारी आत्मा तो नहीं बन सकते। तुम कुछ भी उपाय करों, तुम रहोगे तो आत्मा ही। " आत्मा और शरीर तो अलग-अलग है। विचार ऊपर ही ऊपर है। " " हूंकार उठी, सारा जंगल, पहाड़ पर्वत, हूंकार से गू ं ं एक क्षण में भेड़ खो गयी—वह सिंह था! वापिस उसने पानी में झांक कर देखा। मुस्कुराया होगा। सोचा कैसा खेल हुआ कैसी वंचना! कैसा अपने आप को धोखा दिया!
एक आदमी ऊंट पर चढ़कर अपने गांव जा रहा था। " । " " रूपयों का ऊंट गया।
" देते हो। " "
" हमारा आदर भगवान करते हैं तुम क्या कर सकते हो? सब मिलकर भी क्या आदर कर लोगे? क्या ताकत है तुम्हारे में जो आदर करोगे? वास्तव में संतों का सम्मान भगवान कक हैं हैं दूसा बेचारा क्या जाने की सम्मान क्या होता है है?
" इस इच्छा को ज्ञान की इच्छा कहो या प्रेम की, सुख की इच्छा या ईष्ट दर्शन की, भगवत प्राप्ति की इच्छा कह दो, एक ही बात है, यही हमारा लक्ष्य है, इस लक्ष्य पर डटे रहें, अधूरें में मत रहो, पूरा मिल जायेगा । " अतः इसका लक्ष्य पू~ णत को प्राप्त कका है, आनन्द को प्राप्त ककना है, पपात्मा की प्र्ति के ही म म जीवन जीवन मिल मिल है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। प प पschieden
" " " क्या वह लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है? " भगवान बोले- नहीं पार्थ! "
" दोनों को सिगरेट पीने की आदत थी। वही एक घंटा था जब वे पी सकते थे। लेकिन वह घंटा भी मिलता था, ध्यान के कि घूम क धsal तो सवाल था कि ध्यान करते समय सिगरेट पीना है कि नंह? तो दोनों ने तय किया कि गुरू से पूछ लेना उचित है। तो पहले ने जाकर पूछा। गुरू ने कहा नहीं बिलकुल नहीं। यह बात पूछने की है? शर्म नहीं आती? नालायक कहीं के! जाओ ध्यान करो! वह तो बड़ा दुःखी होकर वापिस लौट आया। " " क्या तुम्हें सिगरेट पीने की आज्ञा दी?
उसने कहा हां मैंने पूछा तो उन्होंने कहा हां मजे ॸ उसने कहा यह तो हद हो रही है! यह कैसा पक्षपात! तो दूसरे ने कहा मैं तुझसे पूछता हूं तूने पूछा क् क्? उसने कहा मैंनेपूछा था कि ध ध्यान क क समय सिग पी पी सकता हूं? वे एकदम नाराज हो गये आग बबूल बबूल हो कि नहीं बिलकुल नहीं।।।। दूसरा हंसने लगा, उसने कहा वहीं भूल हो गयी। " Lass es! अरे कम से कम ध्यान तो कर रहे हो।
" मैंने तुम्हें बांधा नहीं है। किसी को बांधो तो वह भग सकता है। जंजीरें हों तो तोड़ सकता है। " मैं तुम्हें तुम्हाी मालकियत दे ह ह ह हूं तुभ भागना चाहो तो तुम मलिक हो मैं तुम्हें तुम्हाी मालकियत दे ह ह ह हूं।। सारा स्वर यही है मेरा कि तुम्हारी परम स्वतंत्र तह
Lass es! " " " तत्त्वमसि कि तुम हंस हो, मेरे राज हंस हो। तुम अपने आप को भूल. जाग जाओगे ध्यान में तो अपने-आप में साधु हो जाओगेेु " तुम कुछ बचाने का उपाय कर लो। " केवल.
सम्राट ने कहा इन थोड़े से लोगों को बचा कर क्या जो जो ? " " " बस इतनी कसम खा लो।
सम्राट ने ठीक कहा- वह जो बेहोशी है, बाहर-बाहर है, भीतर नहीं पहुंच सक। ऐसा हुआ सारा साम्राज्य पागल हो गया। सिर्फ ज्योतिषी बचा गया। " कितना ही उनको कहो, वे सुनते नहीं थे। कितना ही जगाओ वे जगते नहीं थे, कितना ही हिलाओ, हिलते नहीं थे।।। " दूसदूस को हिलाओ, क्योंकि जो अन्न है भीत भीत तक नहीं जा सकता। वह आत्मा नहीं बन सकता। ऊपर बेहोशी तन्द्रा ही तो है.
" तुम्हेंधुयें से भर दिया है। " कोई तुम्हें हिलाये, जगाये, बस तत्क्षण में क्रांति घट सकती है।।।।।।। क क्रांति उसी क्षण में तुम हंस बना जाओगे, तुम स्वयं बुद्ं बुद्ध ओजध " " सिर्फ भूली आत्मा की पुनःआत्मबोध, स्मृति है, संरह
तो मैं जो कह रहा हूं वह तुम्हें हिलाने की है। " " तुम सब उपाय खोजोगे कि कैसे निकल भागें? "
गुगु पुपु्ण है, अद्वैत है, शिष्य अपुअपु्ण है, शिष्य द्वैत है।।।। " तुम्हें आग में डालना होगा, ताकि तुम्हा स्वण्ण निख आये आये स्व्ण तो जलता नहीं, सिसि्फ निखनिखता है।।।
मैं तुम्हें वह मंत्र, साधना, दीक्षा दे रहा हूं जिसके माध्यम से तुम इसी जीवन में पूर्ण हो सको, जिससे तुम्हारी चिन्तायें, तुम्हारी बाधायें, तुम्हारी परेशानी सब मैं अपने ऊपर झेलूंगा, तुम्हें मुक्त होना है, मेरे प्राणों के साथ रहना है, हर "
" जिससे तुम्हारा प्त्येक क्षण आनन्द मग्न सके, उत्सवमय हो सके, इस प्काशमान दीपावली महाप्व पप मैं तुम्हें ऐसा हीाद देत हूं हूं हूं कलsprechend कsprechend कsprechend कsprechend कsprechend कsprechend कsprechend कsprechend ऐसsprechend ऐसsprechend ऐसsprechend ऐसsprechend ऐसsprechend ऐसsprechend ऐसsprechend ऐसsprechend तुमsprechend तुमsprechend तुमsprechend तुमsprechend.
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