शिष्य को समाज की अपूर्णता के विषय में नहीं अप Es ist nicht einfach अपूर्णता दूर करने वाला समाज की अपूर्णता भी दूर कर सकता है।
शिष्य का महत्व इसमें नहीं है कि वह कितने वर्ष तक जीवित रहता है। अपितु महत्व तो इसका है कि तुम किस प्रकार से जीव ित रहे।
सत्ता शिष्य गुरू के किसी बाहरी काम पर लक्ष् य नहीं करता वह तो केवल गुरू की आज्ञा को ही शीश नव ाकर पालन करता है।
यदि तुम्हारी साधना करने की तीव्र उत्कंठा है तो भगवान उसके पास सद्गुरू भेज देते है। सद्गुरू के लिये साधकों को चिन्ता करने की आव श्यकता नहीं पड़ती।
सच्चा और वीर शिष्य तो इस संचार का बोझा उठाकर भ ी सद्गुरू की ओर प्रसन्न भाव से निहारता है।
मनुष्य तभी तक अध्यात्म के विषय में तर्क-विर ्तक करता है जब तक उसे अध्यात्म का स्वाद नहीं म िलता जिस दिन तुम्हें यह स्वाद प्राप्त हो जात ा है उस दिन चुप- चाप साधना करने लगता है।
जैसे दर्पण को स्वच्छ करने पर उसमें मुंह दिख लायी देने लगता है उसी प्रकार ह्दय के स्वच्छ हो ते ही उसमें सद्गुरू का रूप दिखलायी देने लगता है ।
साधना की राह में कई बार गिरना होता है। परन्तु प्रयत्न करने पर सब साधक ठीक हो जाते ह ै।
शिष्य के लिये प्रायश्चित की तीन सीढि़या है आ त्म ग्लानी, दूसरी बार पाप न करने का निश्चय और आत्म शुद्धि।
Wenn dir die Welt am Herzen liegt, dann wird die Welt auf dich klettern, wenn du dich von ihr abwendest, dann kannst nur du auf der Welt klettern.
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