" देह को समाप्त करने की क्रिया यमराज की है। " " "
" यह. "
प्रयत्न तो प्रत्येक क्षण करता है। " यमयमाज इस बात को नहीं नहीं चाहता कि ग्ंथ अपने आप में गतिशील हों हों।।।।। ग्ंथ अपने गतिशील हों हों।।. परन्तु सामान्य प्राणी यमराज से मुकाबला नहीं कर पाते, संघर्ष नहीं कर पाते और उनके ये अक्षर धूमिल हो जाते हैं, धीरे-धीरे काल उन अक्षरों को, उन पंक्तियों को समाप्त कर देता है और यह देश, यह विश्व उन पंक्तियों से वंचित रह जाता है। " "
ये पंक्तियां ऐसी भी नहीं हैं जिन जिन्हें आने वाली पीढि़याँ प्यत्न कक भी, संभाल सकें। ऐसी पंक्तियां तो वह लिख सकता है जो होता कालजयी पालजयी पालजयी " " , मिटा नहीं सकता। " , पृथ्वी पर छोटी-छोटी बूंदों के माध्यम से अंकित कर देता है, फूलों को पराग-कणों की भांति स्थायित्व दे देता है और विश्व को अद्वितीय बनाने, सौन्दर्ययुक्त बनाने और श्रेष्ठतम बनाने के लिये उसके मुँह से जो कुछ भी निकलता है वह अपने आप में अमिट होता है।
" नश्वर देह में (भी) होते हैं। " औऔ महाप्राण को यमयमाज स्पप्श नहीं क पाते, महाप्रण को संसार विस्मृत नहीं प पाता। " " " हो, विष्णु लोक हो भगव भगवान शंक का शिव हो हो ंभ ंभ ंभ उउ्वशी अप्साओं से युक्त इंद्र लोक हो य कोई कोई अन्य लोक जो अजsal हैं अगोच है।।।। कोई अन्य लोक जो अजsal हैं अगोच है है।।। कोई कोई अन्य लोक जो अजsal हैं अगोच है है।।। कोई कोई कोई अनschieden
ऐसे युग पुरूषों को युग प्रणम्य करता है, ऐसे युग पुरूषों को दिशाये सिर झुका कर वर मालाये पहनाती हैं, दसों दिशाये ऐसे व्यक्तित्व का श्रृंगार करती हैं आकाश छाया की भांति उस पर झुककर अपने आप को सौभाग्यशाली समझता है और जहां-जहां भी उनके पैर बढ़ते हैं पृथ्वी स्वयं खड़ी होकर नतमस्तक हो जाती है, प्रणम्य हो जाती है और इस बात का अनुभव करती है कि वास्तव में ही मेरे इस विराट फलक का, मेरी इस विराट पृथ्वी का वह भाग कितना सौभाग्यशाली है, कि जहाँ इस प्रकार के युग पुरूष ने चरण चिन्ह अंकित किये। " "
" " " " यह संभव नहीं है, यह कदापि संभव नहीं है!
ऐसा संभव हुआ नहीं है- करती रहते हैं। " इन्द्र स्वयं इस बात से ईर्ष्या करता है कि ऐसे महापुरूष के पैरों के नीचे जो रजकण आ गये हैं वे रजकण धन्य हैं, हीरे-मोतियों से भी ज्यादा मूल्यवान हैं, माणिक्य और अन्य रत्नों से भी ज्यादा श्रेष्ठ हैं क्योंकि उन रजकणों में सुगंध होती है , उन रजकणों में एक विराटता होती हैं, उन रजकणों में एक अद्वितीयता होती है और उस अद्वितीयता को प्राप्त करने के लिये योगी, यति, संन्यासी, लालायित रहते हैं- भले ही वे योगी और संन्यासी उन पंच भूतात्मक व्यक्तियों को दिखाई नहीं देते हैं। भले.
" , अगोचर होते हुये भी गोचर है। " । "
वह व्यक्ति अस्थि-चचfluss " "
" " थाह नहीं ले पाते। " " "
" " ये तीनों रेखाये सत्व, रज, तमस गुणों का विशुद्ध ऍरर " इसलिये साक्षात सरस्वती स्वयं उसके कंठ में बैठकर अपने आप को गौरवशाली अनुभव करती है क्योंकि उसके कंठ में काव्य इसी प्रकार से स्थिर होते हैं जिस प्रकार से इस पृथ्वी के गर्भ में लाखों करोड़ों रत्न अदृश्यमान हैं और ग्रीह्ना की इन तीन पंक्तियों के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि वास्तव में ही वह युग-पुरूष है।
" के लिये ही इस पृथ्वी पर अवतरित हुआ है।
" " "
वेदों ने, देवताओं का वर्णन किया है। वहाँ कुछ देवता दृश्यमान हैं- अग्नि देवता, वायु देवता, सूसू्य देवता, चन्द्मा देवता- " इन दोनो प्कार की औ औ देवत देवताओं में अंत अंत नहीं है। " "
" " पप्तु क्या ऐसे व्यक्तित्व का मूल्य वजन से, लम्बाई से, या चौड़ाई से जा सकता है? " जिस प्रकार से हमारे नेत्र ब्रह्मा को साक्षात् नहीं देख पाते, विष्णु के साक्षात् दर्शन नहीं कर पाते, रूद्र की अद्वितीय गतिविधियों को समझ नहीं पाते उसी प्रकार उन नेत्रों के माध्यम से ऐसे उच्चकोटि के योगियों के आत्म को भी नहीं देख पाते उनकी विराटत्म को भी नहीं देख पाते, उनकी विशालता को भी अनुभव नहऀं कर प
" वह व्यक्ति सामान्य है जो योनिज होता है और एक दिन श्मशान में जाकर सो जाता है, वह व्यक्ति सामान्य है जो जन्म लेता है और उसको किसी प्रकार का कोई भान नहीं होता और निरन्तर समाप्त होने की प्रक्रिया में गतिशील होता है। ऐसे मनुष्यों का कोई मूल्य नहीं होता। युग ऐसे मनुष्यों का अभिनन्दन नहीं करता। आकाश ऐसे व्यक्तियों के च च में में अपना सि नहीं झुकाता, पृथ्वी ऐसे व्यक्ति के च के प्ति नमन हो हो पाती। परन्तु सम्पूर्ण प्रकृति युग-पुरूषों का अभिनन्दन करती है, क्योंकि ये केवल मात्र व्यक्तित्व नहीं होते अपितु सम्पूर्ण युग को समेटे हुये एक विराट व्यक्तित्व होते हैं, जिनको देखने के लिये, स्पर्श करने के लिये, अनुभव करने के लिये देवता-गण भी तरसते रहते हैं।
" कर सकें। " "
यह. यह एक ऐसा ही का nächsten देवताओं में इतना सामfluss हमने उनको देवता शब्द से संबोधित किया है और देवता का तात्पर्य है जो कुछ प्राप्त करने की क्रिया करते है वह देवता है और वह देवता प्राप्त करता है इस देह धारी मनुष्य से जप-तप, पूजा-पाठ, ध्यान, धारणा, समाधि, स्तोत्र और विभिन्न प्रकार के मंत्रों का उच्चारण।
क्योंकि देवता का तात्पर्य ही लेना है स्वीकार कर कर परंतु क्या देवता पुनः देने में समर्थ है? शास्त्रों में ऐसा विधान नहीं है। देवता ऐसा प्रदान नहीं कर सकते क्योंकि उनके नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वे केवल लेने की क्रिया जानते हैं, स्वीकार करने की क्रिया जानते हैं, प्राप्त करने की क्रिया जानते हैं परन्तु प्रदान करने की क्रिया का भान उन्हें नहीं होता।
जिस प्कार से चन्द्मा स्वयं प्ककान नहीं है वह सू सूसू्य के प्काश से दीप्यमान है है।।।। प प्काश " " का प्काश, देवताओं के द्वार प्दान कक की क्षमता इस प्कार उच्चकोटि के ऋषियों औ औ मह मह सकती है है। म माधsprechend
" " " " " सौनsprechend " "
" " क्योंकि जो उत्पन्न होता है उसका नाश अवश्यंभावी अवश्यंभावी जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। " वे युग-पुरूष पृथ्वी पर नहीं चलते अपितु वायुमंडल पर अपने चरण-चिन्हों को छोड़कर गतिशील होते हुये भी अगतिशील रहते हैं, क्योंकि सामान्य व्यक्तित्व ऐसे युग-पुरूषों को नहीं समझ पाता और ऐसे ही युग-पुरूष अयोनिज कहलाते हैं।
ऐसा लगता है कि जैसे किसी मां के गर्भ से जन्म लिया हो, ऐसा लगता है कि जैसे किसी मां के गर्भ में नौ महीने का वास किया हो, ऐसा लगता है कि जैसे किसी मां के उदर में वृद्धि को प्राप्त हुआ हो। परन्तु ऐसा अनुभव ही होता है। वास्तविकता कुछ और ही होती है। " " एक भी प्राणी वहां रहा नहीं क्योंकि जगत-जननी पार्वती के हठ की वजह से औढरदानी भगवान शिव उसे अमरत्व का ज्ञान देना चाहते थे, उसे बताना चाहते थे कि किस प्रकार से अमरत्व प्राप्त किया जा सकता है उसे बताना चाहते थे कि किस प्रकार से व्यक्ति "
" " इसलिये व्यक्ति जन्म लेता है औऔ पुाना होक के समाप्त हो जाता है।। " , पतंग, पशु और पक्षी रहे ही नहीं और जब ऐसा भगवान शिव ने अनुभव किया तो अमरनाथ के पास स्वयं अमृत्व बनकर सदाशिव अद्वितीय हुये जिसे अमृत्व कहा जाता है जिसके माध्यम से जरा मरण से रहित हो जाता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अयोनिज बन जाता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति वृद्धता की ओ गतिशील नहीं हो पाता, जिसके माध्यम से व्यक्ति काल की ओ नहीं नहीं जा पाता।
" उस. " " उन्होंने त्रिशूल फेंका और वह कबूतर वहां से उड़ा़ाि
" " " इस प्रकार इक्कीस वर्ष बीत गये। बहुत बड़ी अवधि! " "
वेद व्यास की पत्नी ने कहा- " उतना ही वजन होता है जितना कि एक गुलाब के फूल का हो " विद्वता औ bez.
" यह आवश्यक नहीं है कि वे सफल हो ही जाये। " "
" तैयार हूँ, क्योंकि मैं अमर कथा का श्रवण कर चुका हूँ और यह भी मुझे ज्ञात है कि भगवान शिव का त्रिशूल मुझे समाप्त नहीं कर सकता यह अलग बात है कि भगवान की अकृपा या उनका तीसरा नेत्र मुझे भस्म कर सकता है, मुझे श्राप दे सकता है परन्तु मेरा समापन नहीं कर सकता। क्योंकि मैंने अपने जीवन में भगवान सदाशिव, मदनान्तक त्रिपुरारी और पराम्बा जगत जननी मां पार्वती के दर्शन किये हैं और उनके पारस्परिक संवाद और परिसंवादों को सुना है, हृदयंगम किया है और मुझे यह ज्ञात हुआ है कि अमरत्व क्या है, अमर होने की कला क्या है , बुढ़ापे को कैसे प प धकेल सकते हैं यौवन यौवन किस प्कार से अक्षुण्ण खा जा सकता है मृतfluss
वेद व्यास की पत्नी ने जो उत्त दिया वह अपने में में मनन योग्य है।। उसने कहा- 'तुम मेरे गर्भ में हो और इक्कीस वर्ष हे ो "
" वे योनि के द्वार से जन्म नहीं लेते। " पेट.
" दूस? " यह क्षण ऐसा होता है जब निद निद्रा होती है न जाग्त अवस्था होती है तथ उसे कुछ भान ही नहीं हत हत हत हत हत हत हत।।। "
" " " " , आत्मा को प्सन्नता दे सकें औ अपने जीवन को धन्य क सकें सकें।।।
" " उन सभी अप्सराओं का यह चिंतन रहता है कि वे जन्म लेकर उस महापुरूष के आस-पास विचरण करें, अपने सौन्दर्य, अपने यौवन, अपनी रूपोज्जवला, अपनी प्रसन्नता और अपनी चेष्टाओं से उस युग पुरूष के पास ज्यादा से ज्यादा वे रहने का प्रयत्न करती है ।
वे अप्सराये भी उस स्थान के आस-पास ही जन्म लेती हैी उनकी क्रियाये भी वैसी ही होती हैं जैसी क्रियाये देवता लोग करते हैं और वे शनै-शनै काल के प्रवाह के साथ-साथ बड़ी होती हैं, यौवनवान होती है, सौन्दर्य का आगार होती हैं और अद्वितीय बनकर उस लीला विहारी को प्रसन्न करने का प्रयत्न करती " भगवान श्रीकृष्ण के साथ भी यही हुआ। " . यही चिंतन राम के समय में हुआ। यही चिंतन बुद्ध के समय में औ औ यही यही सभी अवताों के साथ हुआ।। हमारे शास्त्रों में चौबीस अवतारों की गणना की गै गै
" सामान्य मनुष्य के पास, सामान्य बालक के पास दिव्य दृष्टि नहीं होती, कोई चेतना दृष्टि नहीं होती, कोई पूर्ण दृष्टि नहीं होती, कोई कुण्डलिनी जागरण अवस्था नहीं होती और कोई ऐसी क्रिया नहीं होती जिसकी वजह से वह ज्ञात कर सके कि यह बालक केवल बालक नहीं. " , जो देव-पुरूष है, जो अद्वितीय व्यक्तित्व है।
ये चिंतन, ये विचार बिंदु कोई कठिन नहीं है। आवश्यकता है भगवती नित्य लीला विहारिणी की कृपा की, आवश्यकता है इसकी ओर चेष्टारत होने की आवश्यकता है चर्म चक्षुओं के माध्यम से समझने की क्षमता प्राप्त करने की और इस बात की चेष्टा करने कि उस युग-पुरूष के प्रति पूर्ण श्रद्धागत हों, विश्वासगत हों क्योंकि " जहां ब्रह्म है वहां माया भी है। " " "
" " " है कि शिशुओं की इस भीड़ यह ब बालक कुछ हटक है एवं अद्वितीय है।।।
" " उस अप्ससा का सम्पूपू्ण व्यक्तित्व एक ढंग से आभ आभास होता है।
"
ऐसा प्रकाश नहीं जो आँखो को चौंधिया दे। " " नहीं है। "
" शीतलता, तेजस्विता अथाह करूणा से भी आँखे अपने आप में इंगित कर देती हैं कि यह बालक, यह शिशु सामान्य नहीं है, यह बालिका एक सामान्य लड़की नहीं है, अपितु अवश्य ही अप्सरा का प्रारंभ और स्पष्ट रूप है, निश्चय ही देवता है और जिसके चेहचेह पप तेजस्विता, शीतलता, अथाह का ूणा, गगा, गंभीगंभीा औऔ पूपू्णता होती वह निश निश्चय ही-पुपुपु होता है।।। निश निश्चय
" " क्योंकि उसके शब्द मात्र खोखले शब्द नहीं अपितु वे स्वयं ब्ह्म स्व होते हैं हैं।।।।।।। ब्ह्म उनके प्रत्येक शब्द में चुम्बकीय आकर्षण होता हैा वे शब्द ऐसे नहीं होते कि सुनकर हवा में उड़ा दिये े दिये "
जो व्यक्ति इस प्रकार की क्रियाओं के माध्यम से, इस प्रकार की चेष्टाओं के माध्यम से, इस प्रकार के बिन्दुओं का अवलोकन कर थोड़ा-सा विचार करते हैं, चिंतन करते हैं वो निश्चय ही उस भीड़ में से उस युग-पुरूष को ढूंढ निकालते है , जो पृथ्वी का उद्धारक होता है, जो उस युग का नियंता होता है, जो उस अंधकार में प्रकाश की किरण फैलाने के लिये अवतरित होता है, और जो अपने आपमें युग-पुरूष, इतिहास-पुरूष, देव-पुरूष और अद्वितीय व्यक्तित्व पुरूष होता है।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Herr Kailash Shrimali
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