" " स्वयं कृष्ण ने गीता में कहा है-
" "
इसलिये वास्तविक रूप में जो कुछ भी बाहर दृष्टिगोचर होता है, वही हमारे शरीर में भी स्थापित है और अगर ब्रह्माण्ड अनन्त है, तो हमारे शरीर की सीमाये भी अनन्त हैं— परन्तु आजकल लोग अत्यधिक 'धार्मिक'(धर्म संकीर्ण) हो गये हैं और धर्म " है, वह अचेतन पड़ी हुई है—
तभी. कृष्ण, महावी, बुद्ध, क्रइस्ट को जानने से भी क्या हो जाएगा? "
" "
और ठीक ऐसे ही सात शरीर हमारी देह के बाहर भी हैं और इन दोनों में अंतर यह है, कि जहां देह के अंतर वाले शरीर आध्यात्मिक यात्र के परिसूचक हैं, वहीं बाह्य सात शरीर भौतिक यात्र की सीढि़यां हैं। आज के युग में मानव के बाह्य शरीर ही अधिक जाग्रत रहते हैं, क्योंकि जन्म से लेकर मृत्यु तक उसकी सारी खोज बाहर की ही है, बाह्य है— उसे धन चाहिये, पद चाहिये, प्रतिष्ठा चाहिये, प्रेमिका चाहिये और चूंकि ये सब बाहरी भावनाये हैं , अतः मानव के बाह्य शशश आन्तत शशी की अपेक्षा ज्यादा जाग्त हते हैं हैं - -
फिर भी चाहे वह कितनी ही कोशिश कर ले, उसके ये शरीर भी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाते और इसलिये वह जीवन से चाहे कितना ही प्राप्त कर ले, उसकी लिप्सा कभी समाप्त नहीं होती, उसकी दौड़ कभी खत्म नहीं होती। "
" जब. बाहर होगी।
" " " जाता है, जड़ों को भूल ही जाता है।
" यदि.
Ja, das ist es (Bruttokörper) "
तो जो व्यक्ति भौतिकता में्यादा लिप्त है, या यों कहें, कि जो व्यक्ति भौतिक श श श श श श श श श श यों कहें जो व्यक्ति (PHYSISCHER KÖRPER) में है, उसका आभामण्डल बैंगनी ंग लिये होग होगा - अगअग व्यक्ति मनस शβ (MENTALKÖRPER) में है, तो उसका रंग नारंगी होगा आदि। "
और यह सब सम्भव है 'ध्यानातीन साधना' से— ध्यानातीन साधना का अर्थ है- अपने आन्तरिक शरीरों को झंकृत करने की साधना, उनको जाग्रत कर उनमें एक अद्वितीय संगीत पैदा करने की साधना, क्योंकि आज का मानव एक पशु की तरह बन्धनग्रस्त जीवन जीते हुए "
" " " फिर व्यक्ति के अन्दर अपूर्व सम्मोहन की स्थिति हो जायेगी, बुद्ध के समान ही उसकी वाणी अत्यन्त मधुर हो जाएगी और सारे शरीर से एक अपूर्व गंध निःसृत होने लगेगी, उसका सारा शरीर स्वस्थ, निरोग, दर्शनीय बन जायेगा, लोग उसके पास आने के लिये, "
ऐसे व्यक्ति को यश, सम्मान, धन, ऐश्व्य सहज ही प्राप्त हो जायेगा। "
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