" " " जीवन में दशा उसी की खराब होती है जिसे सही दिशा नहीं मिलती और सही दिशा के लिये जीवन में पुरूषार्थ का भाव निरन्तर बना रहे और सही गुरू अपने साधक, शिष्यों को पुरूषार्थ रूपी चेतना और चिंतन दे कर निरन्तर और निरन्तर जीवन में श्रेष्ठता और पूर्णता प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। " " वर्तमान को जिस तरह से सीचोंगे उसी तरह से पौधा और वृक्ष निर्मित होगा और उसी अनुरूप मिठास अथवा कड़वाहट पूर्ण फल की प्राप्ति होगी अर्थात् इन सभी स्थितियों के लिये कर्म का भाव प्रमुख है और उसी के अनुरूप क्रियात्मक स्थिति प्राप्त होती है।
" क्या जीवन में केवल उम्र बढ़ने के अलावा और कोई वर्तमान स्थितियों में बदलाव या प्रगति की स्थिति प्राप्त हुई अथवा क्या जीवन में सुस्थितियां आ सकेगी और इन सुस्थितियों की प्राप्ति के लिये कोई भी योजना और उस योजना को पूर्ण करने की एकरूपता और निरन्तरता का भाव जीवन में रहा है इस पर विचार करना और मनन करना आवश्यक हैहैा " जीवन एक ALLTAG की तरह ही व्यतीत होता जा रहा है। " केवल और केवल सपने बुनते रहते है, ये सपने कैसे कैसे पूह ररे " उसका अहंकार नष्ट होता जाता है। समर्पण की भावना रहने से नम्रता बनी रहती है और मनुष्य विपत्ति के समय जब संघर्ष करके थक जाता है, जब उसे कोई उपाय व मार्ग नहीं सूझता तब अन्ततः वह प्रभु या गुरू की शरण में जाता है और यही भावना और धारणा बनती है कि गुरू ही मेरा भार पार करेंगे। इस तरह जब गुरू के प्रति समर्पण भाव आता है तो उसी समय से जीवन में पूर्णता मिलनी प्रारम्भ हो जाती है और जीवन क्रियात्मक इच्छाओं की पूर्णता प्राप्ति के लिये गुरू के द्वारा निरन्तर शक्ति प्राप्त होती रहती है, ऐसा लगता है कि मेरी पीठ मजबूत है मेरे पीछे भी किसी का सहारा है।
" " " . समर्पण भाव से ही चित्त शुद्ध होता है। " सकता है।
" " कोई वस्तु नीचे पड़ी हो उसको उसको उठाने के आपको झुकना ही पड़ेगा। " " "
तानसेन अकबर के दरबार में प्रसिद्ध गायक थे। बैजू बावरा भी संगीत में रूचि रखता था। उसके मन में तानसेन से अधिक rieben तब तानसेन के गुरू के पास संगीत सीखने के लिये गयाे " " " शास्त्रें में कहा गया है कि क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है, लोभ सब कुछ नष्ट करता है, जबकि दुनिया के सभी प्राणी प्रेम के भूखे-प्यासे, सभी प्रेम चाहते है लेकिन बीज क्रोध के बोते हैं। " घृणा, क्ोध, द्वेष का नाश होने प ही प्ेम में वृद्धि होती।।।
" अहंकारी तो बहुत बड़ी भ्रांति में जीता है। " " अहंकारी अपने को ही अस्तित्व का केन्द्र मानता ऺ विनयशीलता ही जीवन की पूsal विनयवान का ही सत्य से, ईश्वर से, गुरू से साक्षात्कार होता है सत्य अर्थात इष्टमय, ईश्वरमय, गुरूमय बनने की क्रिया सांसारिक जीवन में मार्गदर्शन बताने हेतु गुरू मित्र, सखा या सारथी स्वरूप होता है। आप अपने गुरू के सामने बिल्कुल खाली हो, क्योंकि आप जानते हो कि सही गुरू वही है जो जैसे आप है वैसा ही वह स्वीकार करे और जब गुरू हर रूप में आपको स्वीकार करता है तो तभी वह नर से नारायण बनाने की क्रिया प्रारम्भ कर सकता है ।
" गु? " तभी वह संतमय. जिसमें लघुता, सहजता और सरलता होती है।
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