प्रकृति के लिए खुलो तो सद्गुरू के लिए खुल सकोगे, क्योंकि सद्गुरू प्रकृति में ही छिपा है। प्रकृति उसका ही आवरण है, उसका ही घूंघट है। लेकिन हम प्रेम के लिये ही बंद है, इसलिये हमारी सारी प्रार्थनायें झूठी हो जाती हैं। हम करते हैं प्रार्थना मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरजे में पर सब झूठा, दिखावा, औपचारिक है। प्रार्थना आपके हृदय से नहीं उठती है, जिस प्रार्थना से प्राण ढल जाये उसे ही पंख मिल पाते हैं। हमने एक काल्पनिक संसार बना रखा है, जिसमें हम भीतर रोते हैं, बाहर हंसते हैं। भीतर घाव हैं, बाहर फूल सजा लिये, भीतर दुर्गंध उठती है, ऊपर से इत्र छिड़क लेते हैं। लेकिन लोगों ने भरोसा कर लिया है। जब दूसरे आप पर भरोसा कर लेते हैं तो आप सोचते हो सब ठीक ही होगा।
आप तो अपने आपको सीधा जानने का प्रयत्न ही नहीं करते, उपाय ही नहीं जानते। दर्पण देखते हो, दर्पण में मुस्कुरा कर आप सोच लेते हो कि बड़े खुश हो। दूसरों की आंखे सिर्फ दर्पण ही हैं। और दूसरों को पड़ी भी क्या है कि तुम्हारे अंतस मन को कुरेदें! उनसे तो अपने ही आँसू नहीं सम्हलते, तुम्हारे आँसुओं की झंझट कौन लें। और इस झूठ में जीना संसार में जीना है। इस को तोड़ देना और सच्चे हो जाना संन्यास है। संन्यास जंगल भाग जाना नहीं है। संन्यास है प्रामाणिक हो जाना, जैसे हो वैसे ही होना, फिर कोई भेद ना हो, अन्दर-भीतर, ना ही कोई आवरण, ना ही कोई मुखौटा। झूठ के सारे परिधान उतार देना संन्यास है। जैसे भी हो बुरे-भले, दुखी-पीडि़त, निष्कपट भाव से अपने को वैसा ही प्रकट कर देना।
यह जीवन का शाश्वत नियम है जिन्हें हम प्रकट कर देते हैं, वे कपूर की तरह उड़ जाती है। आंसुओ को दबाओगे, तो आपके पास सिर्फ आँसू ही बचेगें। आँसुओं का एक अंबार बचेगा। बह जाने दो आंसुओं को आंखों से, आंसुओं के बहते ही आंखे स्वच्छ और निर्मल हो जायेगी। तब आप संशय से मुक्त हो जाओंगे। संशय का तात्पर्य है दोहरी जिन्दगी से मुक्त हो जाओगे।
सद्गुरू वही है जो संशय से मुक्त कर दे और भीतर प्राणों में एक ऐसी अभीप्सा जगा दें कि सत्य को जानना है, स्वयं को जानना है। यदि स्वंय को नहीं समझ पायें तो जीवन व्यर्थ हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है। मृत्यु आये और आप पछताओं लेकिन फिर पछताने से क्या होगा? फिर तो समय नहीं बचा। और जो भूलें तुमने इस जीवन में दोहराई हैं, वही भूले तुम अगले जीवन में दोहराओगे। क्योंकि बार-बार दोहराने से आदत हो गई है।
जागने का एक ही उपाय है, सद्गुरू के साथ प्रेम कर लो, उनका हाथ पकड़ लो। उसके द्वार को मत छोड़ना, आज नहीं तो कल बात बन ही जायेगी। देर भले लगे, अंधेर नहीं हैं और देर भी लगती है तो आपके कारण लगती है, क्योंकि आप अपने कूड़ा-करकट को बड़ी मुश्किल से छोड़ते हो। बचा-बचा लेते हो। एक दरवाजे से फेंकते हो दूसरे दरवाजे से भीतर ले आते हो। निद्रा के भी अपने को बचाने के उपाय हैं, निद्रा तुम्हें ऐसे ही न छोड़ देगी। पहले अपनी रक्षा करेगी, हर भांति से रक्षा करेगी। और जो भी तुम्हें जगायेगा, उसको आपका दुश्मन बना देगी। अगर जागना हो तो सोये मन की मत सुनना। मन कहे भी तो अनसुनी कर देना। मन की न सुनना और गुरू की सुनना, यही है शिष्यत्व का सार गुरू चाहे अटपटी बात भी कहे, आज उलटी लगे, तो भी सुनना। और मन चाहे बिलकुल तर्क युक्त बात कहे, तो भी सरका देना एक तरफ। क्योंकि मन के तर्क सिर्फ तुम्हारी निद्रा को बचाने के तर्क हैं।
सद्गुरू को जीवन में पा जाओ तो छोड़ना मत। आपकी बुद्धि छोड़ने के लिए बहुत तरह के आयोजन करेगी। आपका तर्क बहुत तरह के संदेह, भम्र पैदा करेगा। आपका मन अपने को बचाने की सब चेष्टायें करेगा, क्योंकि गुरू के द्वार पर पड़े हैं तो मन की मौत निश्चित है। और मन के मरने पर जीवन की शुरूआत होती है। लोग तो मन की आपाधापी को, दौड़-धूप को, वासना को, तृष्णा को, मन की कामना को ही जीवन समझते हैं। सद्गुरू के द्वार पर पड़े रहने का अर्थ है छोड़ो मन का द्वार, पकड़ो सद्गुरू का द्वार। संघर्ष होगा मन में और सद्गुरू में। मन को चुनोगे तो संसार को चुन लोगे, गुरू को चुनोगे तो मोक्ष आपका है। और बनते-बनते ही बात बनती है, जल्दी मत करना। काहे होत अधीर! अधीर मत हो जाना। यह मत कहना कि एक दिन हो गया, दो दिन हो गये, तीन दिन हो गये, सद्गुरू-द्वार पर पड़ा हूं और अभी तक कुछ भी नहीं हुआ।
और मुसीबत यहीं समाप्त नहीं होती, सद्गुरू धक्के मारेगा कि भागो। सद्गुरू हजार तरह से धकायेगा कि रास्ते पर लगो। सद्गुरू बहुत चोटें करेगा, तिलमिला-तिलमिला देगा। ऐसा मारेगा कि चिनगारियां छूट जायेंगी। तोड़ेगा, जैसे मूर्तिकार पत्थर को तोड़ता है छैनी और हथौड़े को लेकर, ऐसे तुम्हारे अनगढ़ पत्थर को तोड़ेगा तो ही तुम्हारे भीतर मूर्ति छिपी है वह प्रकट हो सकेगी। मगर प्रकट होने के लिये बहुत सा प्रहार करना होगा, और ऐसा करने के लिये सद्गुरू करूणावश कठोर होता है।
सद्गुरू के पास जाओगे तो वहां आपकी प्रशंसा नहीं होगी, उल्टा ऐसी चोटें पहुंचेगी कि तिलमिला उठोगे, आप तो पिटोगे ही, आपके पूर्वज भी पिटेंगे। वह कहेगा आप अज्ञानी हो और आपके बाप-दादे भी अज्ञानी थे। वे तो मर गये व्यर्थ में, आप भी न मर जाना। वह आपको तोड़ेगा। आप तो अपना तन-मन सब अर्पण कर दोगे और सद्गुरू की तरफ से केवल मिलेंगे धक्के। लेकिन घबराना मत, धनी के धक्के खाना बेहतर है।
वह बहुत धकायेगा, बहुत भगायेगा कि भागो यहां से। ये सब परीक्षायें हैं। उनसे ही तुम्हारी पात्रता निर्मित होती है। लेकिन जिसने सिर झुकाया और उठाया ही नहीं, धक्के धनी कितना ही मारे, जो लौट-लौट आ जाता है, वही टिक पाता है सद्गुरू के पास। जैसे स्वान की वृत्ति होती है भगा दो, वापस लौट आता है। डंडा लेकर छोड़ते हो, बाहर निकल जाता है, तुम भीतर लौटे, तुम्हारे पीछे ही पीछे चला आता है। ऐसी शिष्य की वृत्ति होनी चाहिये। गुरू तो बहुत बार डंडे लेकर दौड़ेगा। डंडे प्रत्यक्ष ही हों यह आवश्यक नहीं, अप्रत्यक्ष होते हैं, सूक्ष्म होते हैं।
आप तो जीते जी गुरू के चरणों में मर जाओ। जीते जी मुर्दा हो जाओ। गुरू के पास आपका अपना कोई जीवन न रह जाये। गुरू का जीवन ही आपका जीवन हो। उसकी श्वास में श्वास लो, उसके प्राण की धड़कन में अपनी धड़कन जोड़ दो। उसके संगीत में अपने स्वर मिल जाने दो। जीते जी अगर आप मर जाओं तो परम जीवन उपलब्ध हो जाता है। एकाग्र प्रीति का संबंध हो जाता है। अगर ऐसा हो जाओ जैसे आप हो ही नहीं, तो फिर गुरू ही आपके लिये सब कुछ है, वही बोलेगा आपसे, वही उठेगा आपमें, वही श्वास लेगा, वही धड़केगा आपके हृदय में तो बस काफी है। अब सागर दूर नहीं। घाट तो मिल ही गया, अब छलांग कभी भी लग जायेगी। और आपने न भी लगाई तो गुरू धक्का दे देगा, ठीक अवसर पर, ठीक मौके की तलाश में रहेगा और धक्का दे देगा। और एक बार आप उतर गये तो कोई लौटता नहीं। जैसे नमक का पुतला अगर सागर में उतर जाये तो गल कर पूर्ण सागर बन जाता है, ऐसे ही आप भी अगर सद्गुरू में उतर गये तो गल जाओंगे, खो जाओगे, मिट जाओगे, बर्बाद हो जाओगें, सद्गुरू ने एक बार कहा था मैं आया ही हूं इस धरा पर आपको बर्बाद करने, आपको मिटाने, आपको शून्य बनाने और आपका शून्य होना ही पूर्ण का अवतरण है। सागर का अवतरण है।
ऐसा ही भाव चिंतन का निर्माण प्रत्येक साधक के जीवन में हो, वह सद्गुरू रूपी सागर से एकाकार होने के लिए निरन्तर प्रयासरत हो सके। सांसारिक जीवन की आवश्यकताओं को भली-भांति पूर्ण करते हुये, जीवन की जो भी मलिनतायें, कूड़ा-करकट, दोष, पाप-ताप, धन हीनता, रोग, पग-पग पर अड़चने आ रहीं हैं, इन सब का समूल रूप से दमन कर पूर्णता प्राप्त करने की क्रिया सम्पन्न कर सके। जीवन में चहुँमुखी विकास को गति प्रदान करने में समर्थता के साथ अपनी परिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुये सभी श्रेष्ठमय स्थितियों को प्राप्त कर सकें इस हेतु गुरू पूर्णिमा के दिव्यतम अवसर पर 29-30-31 जुलाई इन्डोर स्टेडियम, बूढ़ा तालाब रायपुर (छ-ग) में ‘शिवोहम् धनदा लक्ष्मी दीक्षा’ और ‘अक्षय राज राजेश्वरी चेतना दीक्षा’ प्रदान की जायेगी। जिससे जीवन में श्रेष्ठमय स्थितियों की वृद्धि हो साथ ही जीवन सद्गुरूमय शक्ति से युक्त हो सके और वह अपने दुःख रूपी पापों को आहूत करने हेतु प्रत्येक साधक द्वारा हवन की क्रिया और अपने जीवन को शिव लक्ष्मी मय स्थिति से युक्त करने हेतु स्वरूद्राभिषेक पूर्ण वेद मंत्रों के माध्यम से सम्पन्न कराया जायेगा।
जीवन के अनेक डर रूपी स्थितियों को समाप्त करने और जीवन में प्रेम रूपी आह्लाद की प्राप्ति के लिये भगवान सदाशिव महादेव और माता गौरी के भूमि पर भ्रमण काल से श्रेष्ठ अवसर और क्या हो सकता है। जिस प्रेम रूपी रस में आप्लावित होकर सांसारिक व्यक्ति सम्पूर्ण परिवारिक सुख-सौभाग्य, जीवन के प्रत्येक पक्ष की सुरक्षा, लक्ष्मी शक्ति से आपूरित होने की चेतना प्राप्त करता है। ऐसी ही सुख-सौभाग्य से युक्त जीवन के लिये सावन शिव शक्ति लक्ष्मी वृद्धि साधना महोत्सव 29-30 अगस्त मधुबनी बिहार में सम्पन्न होगा। जिससे साधक के जीवन में सावन मास पूर्णता की चेतना अक्षुण्ण बन सके।
Es ist obligatorisch zu erhalten Guru Diksha von Revered Gurudev, bevor er Sadhana ausführt oder einen anderen Diksha nimmt. Kontaktieren Sie bitte Kailash Siddhashram, Jodhpur bis E-Mail , Whatsapp, Telefon or Anfrage abschicken um geweihtes und Mantra-geheiligtes Sadhana-Material und weitere Anleitung zu erhalten,