आप सब भी ऐसी ही स्थिति मे हैं। " " हमाे अनुभव की ग्ंथि बंद ह ह गई नहीं नहीं गांठ बनी ह गई गई है।।। हमारे अनुभव करने की क्षमता पूर्णरूप से विकसिप से विकसित नन इसीलिये प्रश्न उठता है-भगवान है या नहीं? लेकिन प्शशografen मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां हैं? मैं उनसे पूछता हूं, भक्ति कहां है? भक्ति, श्रद्धा, विश्वास पहले होना चाहिये। लेकिन उनका प्रश्न विचारणीय है। " किसकी भक्ति करें? कैसे करें? किसके चरणों में झुकें? अपने भगवान, अपने इष्ट, गुरू पर विश्वास पहले होना होना ॿ तभी हम झुक सकेंगे?
" भक्ति के लिये भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है। आंख के उपचार के लिये सूरज की क्या जरूरत है? " प्ेम को इतना बढ़ाओ कि अहंकार उसमें जाये, लीन हो जाये। " भक्ति का भगवान से कुछ भी संबंध नहीं है। भक्ति तो प्रेम का ऊर्ध्वगमन है। . प्रेम की बूंद को सागर बनाओ। जिससे भी प्रेम करते हो, गहनता से करो। जहां भी प्रेम हो, वहीं अपने को पूरा उडेल दो। कंजूसी न करो। अगर प्रेम में कृपण हो, तो प्रेम नहीं रहता और प्रेम अगर अकृपण हो, तो भक्ति, श्रद्धा आनन्द बन जाता है और जहां तुम्हारे अन्दर भक्ति, श्रद्धा, विश्वास अपने गुरू, अपने इष्ट व भगवान के प्रति जागृत हुआ वहीं तुम्हें पूर्णता प्राप्त हो जायेगी , वहीं तुम्हें भगवान के दर्शन हो जायेंगे। " हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा कि अथातो भक्ति जिज्ञाससससससस! अब भक्ति की जिज्ञासा करें। " " अवसर तो मिले, लेकिन कोई भी उपयोग नहीं कर पाये। जो बिना श्दद्धा, प्ेम, भक्ति के बिना जी लिया, जोा गुगु को जाने जी लिया, उसका जीवन जीवन नहीं है है।।।।।।।। जाने जी लिया जीवन जीवन नहीं है।।।।। ज जाने जी लिया जीवन जीवन है है।।।।।।। जाने जी लिया जीवन जीवन है है।।।।। जाने जीा जो जीवन नहीं है है।। जाने जीा उसक जीवन नहीं है है। ज जाने जीा उसका जीवन नहीं है है। ज जाने जीा उसका जीवन जीवन नहीं है है है है है है है है है है है है है है है है
" उसके पहले तो जो जाना था, वह मृत्यु ही थी। उसे भ्रांति से जीवन समझ बैठा था। जब आंख खुली तब पहचाना रोशनी क्या है। उसके पहले जिसे रोशनी समझी थी, वह तो अंधेरा निकलाे जब हृदय खुला तो अमृत की पहचान हुई। एक राजा का दरबार लगा हुआ था। " पूरी आम सभा सुबह की धूप में बैठी थी। महाराज के सिंहासन के सामने एक टेबल प कोई कीमती चीज खी खी थी।।। पंडित, दीवान व प्रजा आदि सभी दरबार में बैठे थे। राजा के परिवार के सदस्य भी बैठे थे। उसी समय एक व्यक्ति आया और प्रवेश माँगा, प्रवेश मिला तो उसने कहा मेरे पास दो वस्तुयें हैं, मैं हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और अपनी बात रखता हू कोई परख नहीं पाता सब हार जाते हैं और मैं विजेता बनकर घूम रहा हूँ अब आपके नगर में आया हूँ। " हाँ दिखायी तो एक सी देती हैं लेकिन हैं भिन्न। इनमें से एक है बहुत कीमती हीरि
लेकिन. और कौन सा काँच? कोई परख कर बताये कि हीरा है या काँच। अगअग पप ख ख निकल तो मैं मैं हार जाऊगाँ औ यह कीमती ही ही ही ही हीका दूंगा।। तिजो तिजो में ककवा दूंगा। " इस प्रकार मैं कई राज्यों से जीतता आया हूँ। " सब हारे, कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया। " "
राजा को लगा कि इसे अवसर देने मे क्या हरज है। राजा ने कहा ठीक है! " . " अंधे आदमी को बोला-आपने पहचान लिया धन्य हो आप। " " "
उस अंधे ने कहा कि सीधी सी बात है मालिक, धूप में सब सब बैठे है।।। मैने दोनो को छुआ जो ठंडा रहा वह ऺ अंधा आदमी पत्थर को हीरा समझे ले, आश्चर्य क्या? अंधे को परख भी कैसे हो, पत्थर की और हीरे की? अंधे के लिये दोनों पत्थर हैं। आंख फर्क लाती है। आंख में जौहरी छिपा है। " अभी तुम गर्भ में ही पड़े हो। अभी तुम बीज ही हो। अभी अंकुरण नहीं हुआ। अभी.
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को खेो खें " प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा? वह असली का धोखा है। वह असली की छायाँ है। " दूसरा ढंग कमजोरों के लिये है कायरों के लिये है। जो लोग शास्त्रों में सत्य को खोजते हैं वे कायर हू वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जायेगा तो भी किसी काम का नहहकाम छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है वह झलक ह " यह दर्पण की पूजा चल रहीं हैं। सूरज को तो भूल ही गयें। " "
सत्य को देखना हो तो सीधा ही देखा जा सकता है। इसलिये विवेकानंद कहते हैं भक्ति की जिज्ञमसा करू " " विवेकानंद ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहीं मिलेगा शब्दों में नहीं, अपने अनुभव में मिलेगा। परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। " क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं।
" और कहने से ही झूठ हो जाता है। " " " प्रेमी ने कहा मैं हूं तेरा प्रेमी। मेरी ध्वनि नहीं पहचानी? मेरी आवाज नहीं पहचानी? भीतर सन्नाटा हो गया। कोई उत्तर न आया। प्रेमी बेचैन हुआ। उसने कहा, क्या कारण है? द्वार क्यों नहीं खुलता? प्रेमिका ने कहा इस घर में दो के लायक जगह नहीं है। या तो मैं, या तो प्रेम, घर में दो के लिये जगह नहीं ह यह द्वार बंद ही रहेगा, जब तक तुम एक होकर न आओं।
प्रेमी वापस चला गया। कई दिवस आये गये, ऋतुयें आयी गयी, बड़ी साधना की उसने बड़ा अपने को निखारा। " प्रेमी ने कहा, तू ही है। कबीर कहता है, द्वार खुल गये। भक्त कह दे परमात्मा से, कि बस तू ही है, मैं नहीं हूू " क्योंकि तू का अर्थ ही अगर मैं नहीं? " मैं ही तो तू कहेगा, तो तू भी कौन कहेगा?
. लेकिन. दो अभी कचरा जल गया, कंचन बचा, अब कंचन को भी मिट जा नन " " तब प्रेमी जहां होगा, मगन होगा। "
जिस दिन भक्त बिलकुल मिट जाता है। भगवान आता ही है। औऔ मैं तुमसे कहता हूं, कि भक्त कैसे भगवान तक पहुंच सकता है? न तो तुम्हें उसका पता मालूम है, न ठिकाना। पता भी लिखोगे तो कहां? जाओगे तो कहां? तुम उसे खोजोगे कैसे? वह मिल भी जाये तो पहचान कैसे होगी? क्योंकि पहले तो कभी जाना नहीं। जब तुम शून्य हो जाओगे, वहां से उत्तर आता है। जैसे बूंद सागर में खो जाये। तुम शून्य हुये कि पूर्ण होने के अधिकारी हुये। तुम मिटे कि परमात्मा आया। क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तू का क्या अर्थ है, अगर मैं नहीं? मैं का क्या अर्थ है, अगर तू नही?
कबीर कहते हैं, हम तो एक एक करि जाना। न वहां कोई मैं है, न वहां कोई तू है। हमने तो एक को बस, एक ही तरह जाना। दोई कहै, तिनही को दोजख जिन्होंने दो कहा, वे नर्क ंम वह नर्क में है। दो यानी नर्क, एक यानी स्वर्ग। वे ही दो कहते हैं जिन्होंने पहचाना नहीं। और जो दो कहते हैं, वे गहन नर्क में पडे़ रहते हैं। सीमा नर्क है। बंधे हुये अनुभव होना पीड़ा है। सब तरफ से दबे होना दुःख है। कुछ बचा है पाने को। जब तक सब कुछ न पा लिया गया हो। कुछ भी न बचे बाहर। तुम ऐसे फैल जाओ कि आकाश जैसे ढाक लो सारे अस्तित ््े कि फूल तुममें खिलें, चांद-तारे तुममें चलें। " वह मैं ही था। जिसने चांद-ता nächsten तो लोग समझते थे कि पागल है। ज्ञानियों को सदा लोगों ने पागल समझा है। बात ही पागलपन की लगती है।
" परन्तु हिंदुस्तान में यह चल जाता है। " मानते है कि सधुक्कड़ी भाषा है। अपनी नहीं, साधुओं की है। कुछ सिरफिरे लोगों की है। तभी तो कबीर को कहना पड़ता है, कहैं कबीर दीवान। दीवानों की है पागलों की है, मस्तों की है। "
" जिसने अपने अहंकार को छोड़ा सब उसका हुआ। " " भोजन करने में, पानी भी पीना मुश्किल हो गया था। " आप जरा माँ को क्यों नहीं कह देते? जगत् जननी को जरा कह दो। तुम्हारी वह सदा से सुनती रहीं हैं। इतना ही कह दो, कि गले को इतना कष्ट क्यों दे रही हो? "
घड़ी भर बाद आंख खोली और खूब हंसने लगे और मां ने कह! कब तक इसी कंठ से बंधा रहेगा? " अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन करूंगा। " यहां एक अस्मिता बुझती औ औ स साे अस्तित्व की्मिता, साे अस्तित्व का मैं भाव वही तो पपमात्मा है।।।। मैं भाव वही तो प प प पपाता है है।। ( वही अस्तित्व की अस्मिता तो कृष्ण से बोली है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। सब धर्म छोड़ कर तू मेरी शरण में आ जा यह कौन बोला हौन? यह कौन है मेरी शरण में? यह कोई कृष्ण नहीं है, जो सामने खड़े हैं। यह सारे अस्मिता, यह सारे अस्तित्व का मैं बोला हैा "
" ऐसी पूर्णिमा की रात थी, रवींद्रनाथ नदी किनारे बे बे बे एक छोटा सा दीया जला कर किताब पढ़ रहे थे। बड़ी टिमटिमाती रोशनी थी। छोटा सा दिया था। और बाहर पूरा चांद खिला था पूर्णिमा की रोशनी ही री लेकिन कमरे के भीतर दीया टिमटिमा रहा था। उसकी. दीये को फूंक मार कर बुझा कर किताब बंद की। तो वह चौंक के खडे़ हो गये और नाचने लगे। यह एक अनूठी सी घटना थी। उन्होंने सोचा भी न था ऐसा होगा। अभी तक पीला सा प्रकाश भरा था कमरे में। "
" पूपूा चांद बाह खड़ा था अनूठी र रात बाह प्तीक्षा कक ही है है।।।।। प पsprechend " " दीये के बुझते ही सब तरफ से रोशनी दौड़ पड़ी। भीतर जगह खाली हो गई। शून्य हो गई। चाँद आ गया नाचता हुआ। " जिस दिन यह दीया मैं फूंक मा größer फिर नाच ही नाच, आनन्द ही आनन्द, उत्सव ही उत्सव हैी फिर इस उत्सव का कोई अंत नहीं होता।
जिन्होंने दो कहा, वे नर्क में है। " तो क्या करें? क्या अकेले में भाग जायें? एकांत में हो जायें, जहां दूसरा न हो? न पत्नी हो, न पति हो, न बेटा हो। बहुतों ने यह प्रयोग किया है। भागे हैं हिमालय की कंदराओं में ताकि अकेले हो जाय क्योंकि दूसरा नरक है। लेकिन तुम भाग कर भी अकेले न हो पाओगे। क्योंकि तुम्हारा मैं तो तुम्हारे साथ इला जायय तुम अपना तु तो यहीं छोड़ जाओगे, मैं तो साथ चला जाय और ध्यान रखो, जहां मैं हूं, वहां तू है। वह सिक्का इक्टठा है। तुम आधा-आधा छोड़ नहीं सकते। अगर मैं तुम्हारे साथ गया तो तू भी तुम्हारे साि "
अकेले में लोग अपने से ही बात करने लगते है। मैं और तू दोनों हो गये। अकेले में लोग ताश खेलने लगते हैं। खुद ही दोनों तरफ से बाजी बिछा देते है। उस तरफ से भी चलते हैं, इस तरफ से भी चलते हैं। " अकेले मे लोग कल्पना की मूर्तियों में जीने लगते ं उनसे चर्चा करते हैं, बात करते हैं, तो तू मौजूद हो हो हो जो भीड़ तुम्हारे साथ ही आ जायेगी अगर मैं तुम्हारा स सार . तुम जहां जाओगे, तुम भीड़ में रहोगे। तुम अकेले नहीं हो सकते। हिमालय का एकांत शून्य नहीं बनेगा। अकेलापन रहेगा ही। और अकेलेपन और एकांत में बड़ा फर्क है। " दूसरे की वासना मौजूद है। तूम चाहते हो कोई आ जायें। " शायद कोई मनुष्य थोड़ी खब ले आये नीचे के मैदानों की, कि क्या हुआ? जयप्रकाश नारायण की पूर्ण क्रांति हो पाई कि नहीं? " मन तुमsprechung
" अब चील कितने ही ऊप उड़े नज नज तो उसकी नीचे कच कच घ में में लगी हती हती है।।।। " आकाश में नजर तो घूरे पर लगी रहती है। तुम हिमालय पर बैठ जाओ। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। नजनज घूघू प लगी हेगी हेगी दिल्ली में एक पहाड़ हो प प घूघू पड़ा है।।। " जैसे चील की नजर मरे हुये चूहों पर लगी रहती है। तुम अपने को तो साथ ही ले जाओगे। तुम ही तो तुम्हारे होने का ढोंग हैं।
" कौवे दौड़ गये है। बड़ा उत्पात मच गया है आकाश में। वह चील बचने की कोशिश कर रही है। " उसके पैरों पर लहू आ गया है। " चूहे के छूटते ही सारा उपद्रव बंद हो गया। कोई वे चील के पीछे पड़े नहीं थे। बाकी गिद्ध और चीलें और कौवे श जैसे ही चूहा छूटा वे सब चले गये। अब वह थकी चील वृक्ष पर बैठ गई। रामकृष्ण कहते है कि मुझे लगा, शायद थोड़ी उसे समङ चूहा सारी भीड़ को ले आया था।
" सब भीड़ आ जायेगी। तुम्हारा मैं भीड़ को खींचता है। तुम मैं मैं छोड़ दो बाजार में हो हो हो वहीं हिमालय हो जायेगा। " मैं का चूहा भर छूट जाये। " तुमसे किसी का कुछ लेना-देना नहीं है। वह तुम्हारा मैं ही तुम्हारे उपद्रव का कारण है। तुम्हें कभी किसी ने धक्का नहीं मारा? किसी ने तुम्हें कभी नीचा दिखाया नहीं। तुम्हारे मैं को नीचा दिखाया गया है? किसी ने कभी तुम्हारी स्तुति की? नहीं तुम्हारे मैं की स्तुति की गई। " " द गो इज द हेल। " इसलिये दूसरे को क्या नर्क कहना। वह नर्क मालूम पड़ता है। वस्तुतः मैं ही नर्क है। अहंकार ही नर्क है।
एक ही पवन है चाहे कैलाश में, चाहे काबा में। " " इस एक को पहचानो। इस एक को जीओ। इस एक में रमों। एक को ही गुनो। इस एक को ही साधो। इस एक को ही ध्यान बनाओ।
और एक ही मिटृी है जिससे सब तरह के घड़े गढ़े गये है कुम्हार चक्के पर रखता जाता है वही मिटृी। अलग-अलग रूप देता चला जाता है रूप का भेद है। नाम का भेद है। मूल का तो जरा भी भेद नहीं है। अस्तित्व का तो जरा भी भेद नहीं है। कोई स्त्री है, कोई पुरूष है। भीतर सब एक है। कोई गोरा है, कोई काला। कोई हिंदू है, कोई तुर्क है। कबीकबी कहा हहा है कि लकड़ी को गड़ने से अग्नि पैदा की जाती है।।। वही एक उपाय था। लकड़ी में अग्नि छिपी है। काष्ठ में अग्नि छिपी है। जब बढ़ई काटता है लकड़ी को तो लकड़ी ही कटती है, अग्नि नहीं कटती है।।। कबीर यह कह रहे है, ऐसे ही तुममें वह एक छिपा है। जब मौत तुम्हें मारती है, तो लकड़ी ही कटती है। अग्नि नहीं कटती। जब बीमाी तुम्हें पकड़ती है, तो लकड़ी को पकड़ती है है अग्नि को नहीं पकड़ती।।।।
जब जवान बूढ़ा होता है तो लकड़ी ही बूढ़ी होती है, अग्नि बूढ़ी नहीं होती।।। कबीर यह कह रहे है। ऐसे ही तुममें कहां वह एक छिपा है। चाहे तुम्हें पता न हो। " रगड़ने का अर्थ है, जिन्होंने थोड़ा साधा, उन्हों न " " लकड़ी के रूप अलग-अलग होंगे। आग का रंग-ढंग एक। आग का स्वभाव गुण एक। जिसने ऊपर-ऊपर से पहचाना वह शायद सोचता हो, सब अलग-अ जिसने भीतर से पहचाना, ये एक ही मिटृी के बने है।
" " शरीर ही कटेगा, मैं नहीं कटता हूं। तू भी नहीं कटेगा शरीर ही कटेगा। "
" दीया मिट जायेगा, ज्योति नहीं मिटेगी। शरीर गिरेगा प्राण ज्योति सदा रहेगी। इसलिये अपने अन्दर के मैं को मिटना पड़ता है। अहंकार को गलना पड़ता है। और तब स्वयं को पहचानने की क्रिया करनी होती है। तब उस परमात्मा से एकाकार होता है। तब अन्दर छिपी अखंड ज्योति स्वरूप वह अग्नि प्रज्वलित होती यह तभी सम्भव है जब हम अपने अन्दर के मैं को मार डाले और अपने अन्दर अपने ईष्ट, गुरू व उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा, विश्वास भक्ति को जाये जिससे तुम्हारा जीवन अजस्त्र अखंड गंगा की तरह निर्मल होकर बहता रहे।
Seine Heiligkeit der Sadhgurudev
Herr Kailash Shrimali
Es ist obligatorisch zu erhalten Guru Diksha von Revered Gurudev, bevor er Sadhana ausführt oder einen anderen Diksha nimmt. Kontaktieren Sie bitte Kailash Siddhashram, Jodhpur bis E-Mail , Whatsapp, Telefon or Anfrage abschicken um geweihtes und Mantra-geheiligtes Sadhana-Material und weitere Anleitung zu erhalten,