" " " कोई चेतना नहीं रह जाती।
जिस क्षण हम जन्म लेते हैं, उसी क्षण से सिsal फ एक जीवन जीवन हमाे सामने होता है।। " इस जीवन का मर्म, चेतना क्या है? इसको. है— यह तो आन्तरिक उल्लास है।
" का कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है।
" " मैं. " यह वैसा ही है किसी किसी तालाब के ऊप तल प प हम लह लह देख देख हें हों।। " "
और जब तक हम शरीर के अन्दर उतर नहीं सकते, जब तक हमें शरीर के अन्दर का ज्ञान नहीं है, तब तक केवल हम जीवन-मृत्यु के बीच में जूझते रहते हैं— हम रोज पैदा होते हैं, रोज मरते हैं— कभी प्रसन्न हो जाते है, कभी उदास हो जाते हैं— कभी चिन्तित हो जाते हैं, कभी उल्लासित हो जाते हैं— कभी कुछ नोट बटोर लेते हैं— कभी किसी से प्रेम कर लेते हैं और हम अपने आप में खुश होते हुए उस श्मशान तक की यात्र करते रहते हैं , जहां सब कुछ समाप्त हो जाना है।
जब सब कुछ समाप्त हो जाना है, तब एकत्र किसलिये करेेेेेेेेरेेर? यह एकत्र करने की क्रिया क्यों है? क्यों एकत्र किया जाता है? " वह जो धन, पुत्र, पत्नी, बन्धु-बांधव एकत्र कक ह ह है उसकी उसे ज ज ज ज ज सकता सकता। क क्योंकि यह उसके स साथ नहींा सकता। ऐसा कक वह जो असल में. " ''आज मैं 'ध्यान' की उन गोपनीय विधियों को, उन गोपनीय रहस्यों को ही स्पष्ट कर रहा हूं, जो 'जीवन के हीरे' हैं जो 'जीवन की पूंजी' है, जो 'मनुष्य की वास्तविकता' है, जिसके माध्यम से मनुष्य , मनुष्य कहलाता है।'' मनुष्य को शब्द से जोड़ा गया 'मन' है— मन शब्द से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है, शरीर शब्द से मनुष्य की उत्पत्ति नहीं हुई हैं इसका तात्पर्य यही हुआ कि 'शरीरस्य' कहना चाहिये 'मनुष्य' नहीं "
जब तक हम मन. "
मनुष्य तब मनुष्य बनता है, जब मन से किसी पकड़ने में सक्षम हो जाता है। " प्रेमी यह कह रहा है- 'मन से प्यार कर रहा हूं।' किसी से प्यार कक समय वह कहत कहत है- " " और मन उसके नियन्त्रण में नहीं है! ऐसा व्यक्ति सही अर्थों मे मनुष्य नहीं बन सकता।
" " " "
" " जब. .
अपने. बान्धव, पुत्र, मान, यश, प्रतिष्ठा- ये सब कुछ ठीक वैसा ही है, जैसे- चित्रपट पर एक चित्र सा चल रहा है, हम प्रेक्षा गृह में केवल एक टिकट लेकर बैठे हुए हों— द्रष्टाभाव से। जब व्यक्ति में द्रष्टाभाव पैदा हो जायेगा, तटस्थ रूप से देखने का भाव पैदा हो जायेगा और देखते समय मन में न प्रसन्नता का भाव होगा, न विषाद का, न दुःख में दुखी होने का भाव होगा, न सुख में सुखी होने का भाव होगा— जब.
" " " की। सीढि़यां बनानी पड़ती हैं- "
'ध्य' इति 'न' स 'ध्यान' - बाह का कुछ ध ध्यान न हो बह बहार कुछ हो ह ह ह हो हम हम समभ समभ को हें हें हें तटस तटस हें हें उस सsal समभ को हें हें हें हें तटस तटस हें। स सsal को को को को को को को को को को को हें ध ध कहते हें उस स सschieden
आंख मूंद कर बैठे रहने को ध्यान नहीं कहते। आंख बंद कर लेने से ध्यान नहीं होता। हिमालय में जाक बैठने से, समाधि लगाने से ध्यान नहीं होता। " " " " उस स्थिति में पहुंचने की क्रिया को ध्यान कहते है प्रश्न ध्यान निराकार का किया जा सकता है या साक ार?
हमाे यहां मूलतः शब्द हैं- " " " देखने में गई, मैं भी हाक गई लाल। उसमें क्या खास बात है, उसे क्या कहूं, उस क्या आकार दूं उसका क्या ूप बताऊं- " " "
" " " " "
" उसके. उसके आँखे. " दिखाई देता है।
यह तो ठीक ब बात हुई- " । बिम्ब प्ेमी नहीं बन सकता-
" " " " " यह आवश्यक नहीं कि आप राम, कृष्ण को पूजते हों। बस. साका größer छल-झूठ, ढोंग और पाखण्ड भय है। इसीलिये ध्यान न साकार का किया जा है है न निनिाकार का किया जा सकता है।।।।। है जा सकता है।
Frage: ध्यान का वास्तविक तात्प्य क्या है औ उसे किस प्कार किया जा सकता है? ध्यान का वास्तविक तात्पर्य जब हम अपनी बुद्धि, अपने चित्त, संदेह, भ्रम, राग, द्वेष इन सबसे परे हट कर अन्दर की क्रिया का प्रारम्भ करते हैं- शांत चित्त से, जहां लहरें न उठती हों, जहां किसी प्रकार से तरंगे विवृत्त न होती "
" जब. "
" पर पहुंचते हैं, उसे 'ध्यान' कहते हैं। प्रथम अवस्था 'वैखरी' का तात्पर्य है- हह अपने देथ ं ं " मैं.
यह अवस्था पशुओं में नहीं है है, यह मनुष्यों में होती है।।। ऐसे कई पुरूष होते हैं जिनकी श " " "
उसने यह अहसास किया है- इस स्थिति का भान होना, अनुमान होना कि मुझे अवस्था तक पहुँचना है जो मनुष्यता की श्ेष्ठतम स्थिति है है।।।।। मनुष मनुष्यता की शsprechung जिस.
मैंने तुम्हे बताया कि, शरीर से निरन्तर विद्यु त तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं, उनसे जब दूसरे श रीर की तरंगें स्पर्श होती है, तब उस दूसरे शरीर क ी तंरगों के स्पर्श से हम मालूम कर लेते हैं कि साम ने वाला क्रोध कर रहा है या घृणा कर रहा है – प्रेम कर रहा है या हमे चाहता है – यह सब कुछ बा ह्य तरंगों के आदान – इस लिए मानसिक बीमारियां बाहरी तरंगों के आदान-प्र दान से ही होती हैं।
" इससे प प हट क जो पहली बार यह सोचत है- " " .
ये बाह्य सुख अपने आप मे क्षण मात्र हैं। जो आज है, वह कल नहीं हैं। आज धन है, कल धन बचा नहीं रह सकता। धन के माध्यम से नींद नहीं प्राप्त हो सकती। " " है कि आनन्द क्या चीज है? आनन्द कैसे प्राप्त होना है? इसे कहां से प्राप्त किया जा सकता है? "
तीसरी अवस्था 'पश्यन्ती अवस्था' है। पश्यन्ती देखते रहने की क्रिया को कहते हैं। " हमारी धारणा और चिन्तन बदल गया है। ठीक ऐसा ही देखने का भाव हुआ, जैसे-
" कोई लड़की बहुत सुन्दर नाच रही है। " बस. मगर तीन घंटो में वह तटस्थ होकर देख रहा है। उसमें इनवॉल्व नहीं हो रहा है। " " है, रूपये चले गये तब भी तटस्थ रूप से देखता रहता है घर में लड़ाई-झगड़ा हो गया, तब भी वह तटस्थ भाव मह रह उसको कोई गाली देता है, तब भी वह तटस्थ रहता है। उसकी. " " वह केवल एक जगह खड़ा है और देखता रहता है। अपने-आपको उसमें लिप्त नहीं ककका, अपने-आपको उसमें जोड़ता नहीं।।। किनारे खड़ा होकर बराबर देखता रहता है।
समाज में चल रहा है, घर में रह रहा है। उसकी पत्नी भी है, पुत्र भी है, बन्धु-बांधव भी हैं, सामाजिक कार्य है, व्यापार भी करता है, नौकरी करता है, भगवान का भजन करता है, हरिद्वार में स्नान करता है, मगर ये सब एक द्रष्टा भाव से करता है, " अपने-आप से अलग क क देखने की जो क्िया है, वह अत्यन्त महत्वपू्ण अवस्था है, वह ध्यान की ओ बढ़ने बढ़ने बढ़ने बढ़ने हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट हट क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क कschieden विषाद पैदा होता है। " किसी स्त्ी को देखक उसके उसके में विषय-वासना पैदा नहीं होती।।।। किसी रोगी को देखकर उसके मन में घृणा पैदा नहीं होहीा
चौथी अवस्था 'अतल अवस्था' है। अतल-जिसका कोई ओ ओ छो नहीं है वह इस संस संसार में हुए भी इस संसार का नहीं होता। उसका परिवेश, उसका वातावरण, उसका जीवन पूरे ब्रह्माण्ड में फैल जाता है— पूरा ब्रह्माण्ड उसका साक्षीभूत बन जाता है, फिर मन में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और भाव तिरोहित हो जाता है। "
उसके मन में द्वैत का भाव धीरे-धीरे समाप्त होने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, अत्यन्त गहराई में जाने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, जहाँ न हिन्दू है, न ईसाई है— जहां किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है। " "
ऐसी जब स्थिति आती है, उस स्थिति को अतल स्थिति कह थं यह ध्यान की ओर बढ़ने की अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थिििि " वह व्यापार भी करता है, नौकरी भी करता है, पत्नी के साथ भी रहता है— वह पति के साथ भी रहती है, मगर उसमें किसी प्रकार की हानि या लाभ की अवस्था नहीं होती— अपने-आप को वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से एकाकार कर लेता है। उसे पड़ोसी. "
उसके सामने देश की भावना मिट जाती है। " है- वह.
पाचंवी अवस्था 'प्राण अवस्था' का तात्प्य यह कि कि- " " "
" " " , उपनिषद् और कुरान और बाइबिल इन सभी को समान रूप से देखता है- उसे रामायण में वही दिखाई देता है— क्योंकि प्राण स्थिति के माध्यम से तो सर्वत्र प्राण एक साथ हैं— और ऐसी स्थिति में वह किसी घटना का साक्षीभूत बन जाता है, क्योंकि " किसी भी स्त्री या पुरूष को देखते ही उसका पूरा पिछला जीवन साकार हो जाता है, मात्र पिछला जीवन ही नहीं कई-कई जीवन साकार और स्पष्ट हो जाते हैं- इस क्षण अमरीका में क्या हो रहा है, उसके सामने साकार है, क्योंकि प्राण सर्वत्र व्यापक है।
" " " " " में क्या सम्बन्ध होगा औ इससे इससे बीस आगे के जीवन में क्या सम्बन्ध होगा?
क्योंकि काल को फिर वह टुकड़ों में नहीं देखता। " इसीलिये प्राणगत अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति एक उच्चकोटि का परमहंस अवस्था प्राप्त व्यक्ति कहलाता है, एक संत कहलाता है, एक तपस्वी कहलाता है, जीवन-मुक्त कहलाता है, क्योंकि- वहां जीवन की स्थिति नहीं है, एक प्राण की अवस्थिति है। वे प्राण जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। वे प्राण जो अपने आप में निर्विकार, निर्विचार हैं वे प्राण जो ब्रह्म का साक्षात् स्वरूप हैं। प्राणगत अवस्था में पहुँचने पर ईश्वर उसके सामने उपस्थित नहीं रहता क्योंकि, जहां ईश्वर का बोध होगा- वहां राम, कृष्ण, नानक, ईसा का बोध होगा— इससे सर्वथा अलग हटकर वहां पर उसके सामने एक ब्रह्म की अवस्था प्रारम्भ हो जाती है- एकमात्र ब्रह्म होता है, जो सर्वत्र व्याप्त है।
" " जहां देश, काल, पात्र महत्व नहीं रखते। वह समस्त संसा nächsten वह समझ लेता है- " जाने पर ही संभव होती है। अगला तल 'निर्बीज अवस्था' है। " प्राणगत अवस्था में तो विश्व में या ब्रह्माण्ड में जो घटना घटित होती है, हम उसके साक्षीभूत मात्र होते है, हम केवल द्रष्टा होते हैं, केवल देखते रहते हैं- इस समय अफ्रीका में क्या हो रहा है, न्यूयार्क में क्या हो रहा है, वाशिंगटन "
जब. अपने. "
क्योंकि उसमें क्षमता प्राप्त हो जाती है वह प्कृति में हस्तक्षेप क सके सके।। " । " लोभ के होक होक जितनी हत्याएं हो हीं हैं- " हिंसक को अहिंसक बना कर उससे रचनात्मक काम ले सकेे
एक हिंसक व्यक्ति चाकू से किसी को घायल कर सकता है और— यदि निर्बीज सम्पन्न व्यक्तित्व उसकी उस भावना को हटाकर उसके हाथ में पेंसिल और कागज दे देता है तो, वो एक अच्छा चित्र भी बना सकता है— उसमें हिंसात्मक प्रवृत्ति थी, पर हिंसात्मक प्रवृत्ति ही पेंसिल के माध्यम से सुन्दर चित्रकारी में परिवर्तित हो गयी— पूरा रूपान्तरण ही कर दिया— प्रवृत्ति तो रही पर प्रवृत्ति को रूपान्तरित कर दिया— यह उच्चतम अवस्था है, यह महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि, ऐसा ही व्यक्ति गुरू बनने का सामर्थ्य रखता है, यहीं पर सद्गुरू बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। " लेकिन. धारणा दूं।''
इसके आगे की स्थिति 'मनस अवस्था' है। " " " पूर्णता प्राप्त होता है। " " सकता है। " " "
Frage: इसे किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? " " " "
" इसीलिये. फिर भले ही वह इस दुनिया में रहे या हिमालय में रहेेय फिर वह साधारण अवस्था में रहे या दिखाई दे। " लम्बाई, मोटाई, ऊँचाई अपने आप में कोई महत्व नहीख ररर महत्व खती हैं- इस रास्ते से परिचित होने की क्रिया।
" " यह मनुष्यता का अपने-आप में सौभाग्य होता है कि बीच में ऐस ऐसा कोई सद्गु है है।।।। बीच में ऐस ऐसा कोई सद है।। उसके उसके बीच बीच. " जीवन में श्ेष्ठतम सौभाग्य की स्थिति तभी है- जिसके.
" जिसके जीवन में भी यह बिन्दु घटता है, उसकी तुलना तो देवता भी नहीं क क सकते।। पूरी मनुष्य जाती उसकी ऋणी हो जाती है। " जब व्यक्ति ध्यावस्था में पहुँच जाता है, तब फि जीवन में कुछ भी बाकी नहीं ह जाता। समस्तसिद्धियां उसके सामने नृत्य करती विजय वर-माला लिये टुकुर-टुकुर निहारती रहती है।
लाखों-करोड़ों अप्सराएं उसके सामने नृत्य करतह रत ऋद्धि और सिद्धि हाथ बांधे उसके सामने खड़ी रहती ं " " " कई हजारों वर्षों बाद ऐसी घटना घटती है। " "
बार- बार ईसा मसीह पैदा नहीं होते, हजाों वाषों के बाद ईसा मसीह पैदा होते हैं।।।।। बाद ईसा मसीह पैदा होते हैं।। के बाद कई हजार वर्ष बाद एक महावीर, बुद्ध, कृष्ण पैदा होतोत " हिंसा, द्वेष, मार-पीट, छल-कपट और लड़ाइयां बढी हैं, शांति समाप्त हो गयी है— जब ऐसे व्यक्ति का अवतरण होता है, तब युग परिवर्तन की क्रिया सम्पन्न होती है और यह इस पीढ़ी का सौभाग्य है— जिस पीढ़ी के पास ऐसा व्यक्ति होता है, वह पीढ़ी अपने आप में महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि उसके सम्पर्क में, उसके अहसास में, उसके वातावरण में रहने का एक अवसर उपस्थित होता है— और जो अहोभागी होते हैं, जो भाग्यशाली होते हैं, वही अनिवर्चनीय व्यक्तित्व के सम्पर्क में आते हैं। "
ऐसा ही व्यक्तित्व मनुष्य की उंगली पकड़ क उस जगह पहुँचा देता है जहां देह की सातों अवस्थायें समाप्त होक होक होक ध्यान की्था ा्म) जो ध्यान की अवस्था है, वह अपने-आप में पूपू्णता की अवस्था है, एक से समुद्र बनने अवस्था है, प्राम्भ से पूsal की अवसsal है अवसsal है है, शsprechungswissen
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Herr Kailash Shrimali
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