" ये सब साधन है। ये सब आलंबन है। ये सब आश्रय है। इनके आधार पर आदमी अपने अंहकार को मजबूत करता है। साधक तो वे है, जिनके पास कोई साधन नहीं, जिनके पास कुछ भी नहीं।।। " " मेरे पास कुछ है। तो फिर आलंबन हो गया। "
" " पदचाप किये आ जाती है। सारी सुरक्षा का इंतजाम पड़ा रह जाता है और मिट जा जाॹ " हो भी जाती, तो भी ठीक था। होती ही नहीं, हो ही नहीं पाती। "
जिंदगी असुरक्षा है। असुरक्षा चारों तरफ है। हम असुरक्षा के सागर में है। " " तिनकों को पकड़ लेते है और सोचते है, किनारा मिल गय ऐसे धोखा, सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवंचना होती है।
" मृत्यु से बचो कितने ही, मृत्यु आती है। " अब हम राजी है। अब हम पहरेदार न लगायेंगे। अब हम तिनकों का सहारा न पकडेंगे। " मिटेंगे ही, हम राजी है। " अचानक वे पाते है, सागर खो गया। अचानक वे पाते है, किनारे पर खड़े है।
क्यों? ऐसा क्यों हो जाता होगा? " ऐसा चमत्कार, क्यों घटित होता है? " असुअसु्षा का जो अनुभव है वह सु सुसु्षा की खोज पैद पैदा होता है।।।। पैद पैद पैदा होता है। " " एक दुष्टचक्र है। " " वही आकांक्षा सागर को बड़ा करती जाती है। साधक का अनुभव यह है जो सु सु सुसु्षा का ख्याल ही छोड़ देता है, उसकी अब असु असु असुअसुक्षा? " अब मौत करेगी भी क्या? वह. जो मौत से. मौत, मौत के भय में है, उस भय के कारण हमे रोज मरना प़ थ़ "
साधक निरालंब होने को ही अपनी स्थिति मानते है। वहीं स्थिति है। वे मांग ही नहीं करते। वे कहते ही नहीं कि हमें बचाओ। वे कहते है, हम तैयार है, जो भी हो। " " " " जिनका कोई आग्रह नहीं है। जो किसी विशेष स्थिति के लिये आतुर नहीं है कि ऐसा ी ी ी " " "
" " " " यह हमारा बहीखाता है, जिसमें सभी भजन करने वमलों करने वमलों करने "
राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा, महाराज! आप. " देव महाराज के दर्शन हुये। " राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुये पूछा महाराज! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है। देव ने कहा राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों के नाम लिखे जो ईश्व को सबसे प प्िय है।।
" क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक हिै ही? " "
देव ने कहा राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है, जो निष्काम होकर संसार की सेवा करते है जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते है जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानों की सेवा सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरूषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है, ऐ राजन! " देव ने वेदों का उदाहरण देते हुये कहा-
कुकु्वन्नेवेह कक्माणि जिजीविषेच्छनं समा एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कsal
" भगवान दीनदयालु है, उन्हे खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो दीन, दुखियों का हित, साधन करे अनाथ विधवा, किसान व निर्धन अत्याचारियों से सताये जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है ।
" जो व्यक्ति निः स्वार्थ भाव से की सेव सेव क क के लिये आगे आते है है प प प प प Entwicklungs ह ह कल कल कल्याण के प्यत्न क क है।।।। कल्याण के पsal entwickelt हमारे पूर्वजों ने कहा भी है- ''परोपकाराय पुण्याय भवति'' अर्थात दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिये अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप वह ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जायेंगे।
" " " लेकिन हम अपने पर ही भरोसा करते चलते है। सोचते है, अपने को बचा लेंगे। कितने लोग सोचते रहे है!
" लेकिन यह खतरा बहुत ऊपरी है। " क्षुद्रता टूट जाती है, विराट के साथ मिलन हो जाता ै ै "
" कल तक जिन सीमाओं से, जिस नाम से समझा था कि हूँ हूँ वह टूट ज जाये। " "
लोग कहते है, कपड़े तो बाहर है, बदलाहट तो भीतर कयी चो कपडे़ बदलने. कपड़े बदलने में कुछ भी तो बदल बदल ह ह ह ह है तो मुझे पत पता है।।। " " खुद को भी पता नहीं चलेगा। ये कपड़े पता चलेंगे। लेकिन जो. "
" " प्यास तो भीतर है। नहीं यह हम नहीं कहते। " भीतर का तो कोई पता ही नहीं। उस भीतर का पता मिल जाये, इसी की तो खोज है। इमेज तोड़नी पड़ती है, प्रतिमा विसर्जित करनी पडी पडी वह. " जब आप. आकाश के नीचे लेटे हो, मौन हो जाये। कौन तारा है और कौन देखनेवाला है, थोड़ा फासला रह यज
सब फासला विचार का है। वियोग विचार का है, संयोग निर्विचार का है। जहाँ भी निर्विचार हो जायंगे, वहीं संयोग हो जायाेत
" जो देख रहा है वह और वह जो देखा जा रहा है, एक हो जायै " यह विचार से नहीं, यह आप सोच सकते है। यह आप वृक्ष के पास बैठक सोच सकते है कि मैं औ वृक्ष एक हूँ।।।। तब संयोग नहीं होगा, क्योंकि अभी सोचने वाला मौजूद यह. " वृक्ष के पत्ते हिलेंगे, तो लगेगा मैं हिल रहा हंँे " लगेगी, यह विचार नहीं होगा, यह प्तीत होगा, यह्मिक अनुभव होगा।
" एक ही घर में अगर सात आदमी होते है, सात दुनियायेथ " सात दुनिया एक घर में रहे, सात जगत, तो कलह होने हऀ व सात बर्तन में हो जाती है तो सात जगत बड़ी चीजें हैी एक वृक्ष के पास आप भी बैठे हुये है। आप एक बढ़ई है। " " है। उस वृक्ष में फूल नहीं खिलते, कुर्सियां-मेजे लग ती उसकी अपनी दुनिया है। "
इधर इतने वृक्ष लगे है। " वह चित्कार को ही दिखाई पड़ते है आम को दिख दिखाई नहीं पड़ते।।।। आम व्यक्ति के लिये ह ह यानी ह ह ह ह ह कोई औ मतलब नहीं होता। . दो वृक्ष एक से हरे नहीं है। हरे में भी हजार हरे है। पत्ता-पत्ता अपने ढंग से हरा है। " उसे पत्ते-पत्ते का व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है।
वहीं पर एक कवि बैठा, उसके लिये वृक्ष काव्य बा जा तह कवि वृक्ष को अपने नजरिये से देखता है। " उसका अपना जगत है। उसे खिले हुये फूलों लदे. " पूर्णिमा का चांद भी उदास आदमी को उदास मालूम पड़ ह हम अपने जगत को अपने भीतर से फैलाते है अपने चारऋर चारऋं " वह मेरा फैलाव है, मेरे मरने के साथ मिट जायेगा वह जह जह जायेगा हर आदमी के मरने के साथ एक दुनिया नष्ट होती है। जो थी वह तो बनी हती हती है लेकिन हमने हमने फैलाई थी, बनाई थी, हमारा सपना थी, वह जाता है। काशी में नारायण नाम के एक ब्राह्माण रहते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। . " चार वर्ष बीत गये, गर्भ से बालक नहीं निकला।
नारायण ने यह देखकर कहा-''पुत्र! मनुष्य योनि के लिये जीव तरसते है। " '' गर्भस्थ बालक ने कहा, ''मैं यह सब जानता हूँ, पर मैं काल से बहुत डर रहा हूँ यदि काल का भय न हो तो मैं बाहर आऊ।'' यह सुनकर नारायण भगवान सदाशिव की शरण गये और उनके आदेश से धर्म, " " " इस पर विभूतियों ने कहा-'मांते! "
" " " " " अतः मैं यहीं रहकर बड़ी भारी तपस्या करूँगा।
" इस प्रकार सौ वर्ष बीत गये। " आज आपका नियम पूरा हो गया। अब इस जल को ग्रहण कीजिये। इस पर कालभीति ने कहा, 'आप किस वर्ण के है। आपका आचार-व्यवहार कैसा है? इन सब बातों को आप यथार्थ रूप से बतलाइये। बिना इन सब रहस्यों को जाने मैं जल कैसे ग्रहण कँूूू?
इस पर आगन्तुक बोला, 'मैं अपने माता-पिता को नहीं जा मुझे यह भी पता नहीं कि वे थे और मर गये या वे थे हनी ि दूसरा मैं अपना वर्ण भी नहीं जानता। आचार और धर्म-कर्मो से भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं ही इस पर कालभीति ने कहा, अच्छा! यदि ऐसी बात है तो मैं आपका जल नहीं लेता। " " " '
यह सुनक उस पु पु ने कह कहा- " ? यह घड़ा मिट्टी का बना हुआ है। फिर अग्नि से पकाकर जल से भरा गया है। इन सब वस्तुओं में तो कोई अशुद्धि है नहीं। " मेरे संसर्ग से यह पृथ्वी अपवित्र हो गयी है।
इस पर कालभीति ने कहा- 'अच्छा ठीक! देखो, यदि सम्पूपू्ण भूत शिवमय ही है औ औ कही कोई भेद है तो ऐस ऐसा मानने वाले लोग भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थो को छोड़क मिट्टी कsal नहीं ख खाते? राख और धूल क्यों नहीं फाँकते? " -नीच, शुद्ध-अशुद्ध-सब में भगवान सदाशिव विाजमान है, पप व्यवहार भेद आवश्यक है।।। जैसे.
" इसलिये मैं तुम्हारा जल किसी प्रकार ग्रहण नहीं कक " " उससे वह गर्त भर गया, फिर भी घड़े का जल बचा ही रहा। "
" इससे क्या हुआ? '
Ein Brunnen ist etwas anderes, ein Topf ist etwas anderes und ein Seil ist etwas anderes, oh Bharatha.
Einer trinkt und einer trinkt und alle teilen sich gleichermaßen.
'भारत! " " " " अतः मैं इस जल को किसी प्रकार नहीं पीऊँगा।' " अब तो कालभीति को बड़ा विस्मय हुआ। " आकाश में गन्धध्व गाने लगे, इन्द्र ने पािजात के पुष्पों की वव्षा की।।।। " " तुम्हारी आराधना से मैं बड़ा सन्तुष्ट हूँ। " तुम मनोवांछित वर माँगो। तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।' कालभीति ने कहा- आपके इस शुभ लिंग प जो भी दान, पूजन किया जाय, वह अक्षय हो। " भगवान सदाशिव ने कहा-'जो तुम चाहते हो, वह सब होगा। साथ ही तुम नन्दी के साथ मेरे दूसरे द्वाि कालमार्ग प विजय प पाने से तुम महाकाल के नाम से प्सिद्ध हो जाओगे। " इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।
" " जो है वैसा ही देखना, उस पर कुछ भी आरोपित न करना। " " "
पहाड़ो-पर्वतों से उतरते हुये झरनों को हमने देखै देखै समुद्र की ओर बहती नदियों से हम परिचित है। " उसकी प्रकृति है नीचे की ओर जाना। जहां नीची जगह मिल जाये वहीं उसकी यात्रा है। अग्नि बिल्कुल ही इसके विपरीत है, ऊर्ध्वगामी उसा कक आकाश की ओर ही दौड़ती चली जाती है। "
" अधिकांश मनुष्य पानी की तरह बहते है। " " " ऊपर-भीतर, नीचे बाहर एक दूसरे के पर्यायवाची है। जितने भीतर जायेंगे, उतने ही ऊपर चले जायेंगे। जितने बहार जायेंगे, उतने नीचे चले जायेंगे। " जिन लोगों.
" " " यह अग्नि का स्वभाव है, शुद्ध को बचाने के लिये आतु आतु हती हती है।।।।। बच बचाने के आतु हती शुद। बचाने " कहीं होगा छिपा हुआ शुद्ध। " उसे ज्यादा देर तक अग्नि में तपाना पड़ता है। " "
इसलिये ज्ञानी, चेतनावान साधक कहते है, कि देव देव मुझे सन्मार्ग प ले चल चल।।। Lass es! Lass es! मैं अज्ञानी हूँ, तू मुझे ले चल। देवता कौन? " इसलिये.
जो साधक यह पुकार करता है कि हे देव! " " " इसके लिये प्रकृति ने हमें काफी उपकरण दिया है। वह अपने आप हमें ले जाती है। " " "
" इस भ्रांति में मत रहना। सन्मार्ग की तरफ जाना तो आपको ही है। लेकिन यह प्रार्थना आपको जाने में असमर्थ बनायेीगी " उर्ध्वगमन की ओर, ऊपर की ओर। " " लेकिन उसके पहले आपको पहल करनी पड़ेगी। साधना करनी पड़ेगी। " साधना तो स्वयं में ही फल है। " " " हो सकती है, बस थोड़ा सा स्वयं को व्यवस्थित करना ह
" कितनी अनुकम्पा उनकी है। " सदure "
पपात्मा ूपी सद्गुगु का तो स्वभाव ही कृपा है, अमृत उनका स्वभाव है वे तो ब ब ही हें हें है है।।। वे सतत् बरस रहें, हमारी ही मटकी उल्टी है। " " जब मटकी सीधी होती है तो भीत का खालीपन ही प प्गट होता है।। " । तब उस मटकी में कुछ भरा जा सकता है।
फिर कृपा उसमें भर जाती है, क्योंकि मटकी सीधी हय गो " आपकी. इस संसार से जो हम फैला लेते है उससे वियोग अलग हो जाना। " हमारा फैलाव गिगि जाना चाहिये, तो प प प प प।।।।।।।।। संसार से सकते है।।।।।।।। केार " " वियोग अंसतोष है। " "
" इसलिये अतिरिक्त संतुष्ट आदमी होता ही नहीं। बाकी सब आदमी असंतुष्ट होंगे ही। वे कुछ भी करे, असंतोष उनका पीछा न छोड़ेगा। वे कुछ भी पा लें या खो दें, असंतोष से उनका संबंध बना ही हेगहीा। वे. असंतोष छाया की तरह पीछे लगा ही रहेगा। कहीं भी जाये आप। सिर्फ एक जगह अंसतोष नहीं जाता। वह परमात्मा से जो मिलन है, वहाँ भर अंसतोष नहीं जाा उसके कई कारण है। पहला काण तो यह है कि हमने कभी पूछा ही नहीं से कि हम असंतुष्ट क्यों है। "
एक महल दिखाई पड़ जाता है, तो सोचते है यह महल ज जाये तो संतोष मिल जायेगा। " क्या कार न होने से मैं असंतुष्ट हूँ? क्या महल न होने से मैं असंतुष्ट हूं? पद न होने से मैं असंतुष्ट हूं? तो फिर थोड़ा मन में सोचे। समझ ले कि मिल गई कार, मिल गया महल, मिल गया सम्ााट दक पूछे अपने से, मिल गया-संतोष आयेगा? और तत्काल लगेगा कि कोई संतोष आ नहीं सकता। " तो. उसे भी ऐसा ही लगा था एक दिन। उसे भी लगा था कि इस पद पर होकर संतोष हो जायेगा। फिर पद पर आये तो बहुत दिन हो गये, संतोष तो जरा भऀ यो हाँ, अब लग ह ह ह है कि किसी औ बड़े पद प हो हो तो संतोष हो जाये। ऐसे जीवन क्षीण होता, रिक्त होता, मिटता, टूटता। "
हमने कभी ठीक से पूछा ही नहीं कि हम असंतुषूट क्य ोह " " " पपात्मा को पाने के बाद अपवित्र होने का कोई उपाय नहीं है।।।।। का कोई कोईाय वह असंभावना है। साधक अपवित्र नहीं हो सकता, वह पावन है। "
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Herr Kailash Shrimali
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