" "
गुरु भी खुली बाहों से सदा खड़ा रहता है। " "
कहता भी है, तो पहल आपकी ओर से होती है। " परन्तु आप ठिठक जाते है। " यह खेल है सब कुछ खो देने का।
" , ना ही पपिवार त्यागने का तुमसे आग्ह कक हहा है अपितु कह ह ह ह ह है- है- है- है-
" "
अनure तब सांसािक का nächsten " " तो उस क्षण पूर्ण चैतन्य बने रहना। दोबारा सो मत जाना। वही क्षण महत्वपूवपू्ण है क्योंकि उसमें आप प्क्िया के प्ैक्टिकल में उत सकते हैं।।।। यह विज्ञान है ही प्ैक्टिकल, मात्र पढ़ने से काम नहीं चलेगा। " "
" इसके लिये वर्षो का परिश्रम नहीं चाहिये। हाँ, पहले तो आपको तैयार होना पडे़गा। " " यह प्रैक्टिकल क्रिया है। बैठे-बैठे आप प्यास नहीं बुझा सकते औ अग यह यह सोंचे कि झुकूंगा नहीं, तो प्यास बुझने वाली नहीं है।।।। प प्यास
अगर शिष्य या फिर एक इच्छुक व्यक्ति प्रयास करने के बाद भी बुद्धि से मुक्त नहीं हो पाता, तो गुरु उस पर प्रहार करता है और यही गुरु का कर्त्तव्य भी है, कि उस पर तीक्ष्ण से तीक्ष्ण प्रहार करे, तब तक जब तक कि उसके अहंकार का किला ढह न जाये। क्योंकि भीतर कैद है आत्मा और विशुद्ध प्रेम। " -
कठोकठो कार्य सौंप क क क पप पप्षा लेकलेक, साधना ककाक औ औ जब सभी निष निष्फल होते तो विशेष दीक्षा देकदेक वह ऐसा कसकत सकता है।।।।।। दीकsprechend "
" " "
" उसका उद्देश्य तो मात्र इतना है, कि व्यक्ति को उस परम स्वतंत्रता का बोध करा दे, जिसे पाकर कोई भी सांसारिक समस्या, दुःख, पीड़ा उसके मन पर आघात नहीं कर पाती और पूर्ण निश्चिन्त हो वह सदा बिना भय और संशय के उच्चता एवं सफलता की "
तब एक अनूठा संतुलन स्थापित हो जाता है। आज हर मनुष्य के जीवन में असंतुलन है। " " "
" " गुरु तो जिम्मेदारी लेता है, पूरी जिम्मेदारी! "
" अनेकों लोग विशेषतः तथाकथित वैज्ञानिक संदेह प्रकट कर सकते हैं मंत्रों के सन्दर्भ में, परन्तु अगर वह पूर्ण गुरु है, तो सिद्ध कर देता है, कि वैदिक मंत्र प्रमाणिक ही नहीं, अपितु इतने शक्तिशाली हैं, कि क्षण में व्यक्ति का रुपान्तरण कर दे।
" व्यक्ति के जन्मों की न्यूनताओं को नष्ट करना पडता है अपने तप द्वारा और न केवल उसकी न्यूनताओं अपितु उसके माता-पिता, उसके पूर्वजों की समस्त न्यूनताओं को समाप्त करना होता है, क्योंकि वे सब संस्कारो द्वारा, आनुवांशिक प्रक्रिया द्वारा उसमें विद्यमान होती हैं। "
" वह तो बस. तब विशेष दीक्षा की आवश्यकता नहीं। सदsprechend यदि. उसके लिये सभी बराबर है। "
" हाँ, इनका प्योग तभी गुगु कका है, जब शिष्य स्वयं ग्हणशील नहीं हो पाता। " " "
ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे विदुर। " बुद्ध के शिष्य थे आनन्द-तीस वर्ष तक बुद्ध उन पर प्रहार करते ही रहे, तब कहीं उनका अहंकार गला और वहीं एक शिष्य थे राहुलभद्र जो बुद्ध की शरण में पहुँचे नहीं, कि पूर्ण रुपेण कुण्डलिनी जाग्रत हो गई और वे बुद्धत्व को प्राप्त हो गये । होता है ऐसा! " परन्तु इसमें शिष्य का तैयार होना आवश्यक है। "
विशेष दीक्षा क्या है, यह पहले जान ले। एक माँ कैसे भिन्न है अन्य मानवों से। शरीर तो वैसा ही होता है-मांस, मज्जा, हड्डी, लहु िददि " वैसी ही करुणा, वैसा ही प्रेम होता है गुरु के मन मे " क्यों हाथ रखता है? आपने शायद गौर नहीं किया। "
" " आपको कुछ बोलने की आवश्यकता ही नहीं। " मैं बोलूं अथवा नहीं बोलूं आप भांप लेंगे, क्योंकि आँख हमेशा सत्य ही बोलती हैं हैं।। इसलिये क्योंकि उनमें से भावनाये प्रवाहित होतू जो आपके भीतर है, वही उनमें प्रतिबिम्बित हो उठता ै
" हाथ की अंगुलियों के माध्यम से यह सम्भव है। विशेष दीक्षा का अर्थ है शिष्य गुरु के सामने आये और गुरु एक सेकण्ड उसकी आँखों में ताके और शक्ति का एक तीव्र प्रवाह उसके नेत्रों के माध्यम से उसके शरीर में एक आलोड़न, एक प्रक्रिया को आरम्भ कर देगी, उसकी निद्रा को भंग कर देगी और उसे पूर्ण चेतन्य कर देगी।
" एक बार एक शिष्या मेरे पास आई और बोली-कमाल है गुरी ! उस व्यक्ति की आँखों में तो आपने एक मिनट तक देखा औ मुझे केवल दस सेकण्ड। " इसके लिये तो एक क्षण भी बहुत होता है। एक सेकण्ड लगता है स्विच दबाने में औपू पूपू बिल्डिंग ोशनी से चकाचौंध हो जाती है।।।।। ोशनी से सेाचौंध हो ज है बिल।।। बिल बिल ोशनी ोशनी से सेाचौंध हो पू बिल बिल बिलsprechung " " "
" " " विशेष दीक्षा द्वार चैतन्यता प्दान क क की पहली प्क्िया है र र र Entwickle दीक्षा। " राज्याभिषेक दीक्षा का अर्थ है, व्यक्ति के अन्दर की सारी वृत्तियां जागृत हो और कुण्डलिनी का एकदम जागरण हो, विस्फोट हो और इस प्रकार आज्ञा चक्र जागरण द्वारा उन सब दृश्यों को व्यक्ति देख पाये, जो कि सामान्यतः सम्भव नहीं। " "
" " " " .
" इसके बाद और एक दीक्षा होती है और जो छः दीक्षाये हीक्षाये हीक्षाये हीक्षा उसके पश्चात् ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्त करता ैी " " " इसके लिये अन्दर एक तीव्र चेतना का जागरण आवा " चाहिये, कि वह इस दीक्षा का अधिकारी बन गया है।
" " में लीन होना। यानि पूर्ण रुप से गुरु की स्वयं के विचार, स्वयं की कोई इच्छा रहे ही नहीं। यह कठिन अवश्य है, मगर गुरु के सान्निध्य में यह ऍभ Ft भावाभिव्यक्ति तब होती है जब गु गु शिष शिष्य का पप्प एक गहनसम्बन्ध बनता है समऔ्बन्ध का सेतु तैयार होत है सेवा के माधsprechend से।।। सेतु सेतु तैयार होत सेवा के माधsprechend "
" गुरुसेवा, गुरुनिष्ठा, गुरुभक्ति के साथ निरन्तर पठन, चिंतन, मनन के द्वारा ही भूख और प्यास की परवाह किये बिना दीक्षा का वह महान ज्ञान प्राप्त कर सका जो मुझे संसार में बांटना था। " " " परन्तु एक सामाजिक प्रक्रिया थी जिसे निभाना था। " " हम तो निमित्त मात्र है। "
" " " उस महासमुद्र में छलांग लगाने के एक पहला कदम। " "
" "
और पूर्ण भावाभिव्यक्ति की क्या पहचान है? यदि 'गुरु' शब्द का उच्चारण हो और एकदम से गला रुंध जाये— और आँख से आँसू प्रवाहित होने लग जाये और ऐसा एहसास हो कि मेरे पास केवल 24 घण्टे हैं, अगर कहीं 28 घण्टे होते तो और अधिक गुरु-सेवा कर पाता— गुरु से पहले उठे और बाद में सोये। एक आहट हो और चौकन्ना हो जाये। " इतनी तीव्र भावना हो।
इस दीक्षा के बाद गुरु-शिष्य के तार मिल जाते हैं। यह दीक्षा अन्दद सभी वृत वृत्तियों को औ कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र तक पहुँचाने की क्िया है।।।।। चकsal " सहस्त्रार सिर में एक ऐसा भाग है जहाँ एक हजार नाडि़याँ अपने आप में ऊर्ध्व यानि उल्टी होकर अमृताभिषेक करती है तथा जब सहस्त्रार जागृत हो जाता है, तो यह अमृत झरने लगता है और समस्त शरीर में फैल जाता है, जिसके कारण अद्भुत आभायुक्त एवं कान्तिवान हो जाता है।
" " ऐसा ही सहस्त्रार हfluss वह अमृतवर्षा पूरे शरीर को अमृतमय बना देती है। ऐसे व्यक्ति के श श श से एक अद्वितीय सुगन्ध प्वाहित होने लग जाती है। "
ऐसा व्यक्ति विदेह हो जाता है। संसार की कोई चिन्ता उसे नहीं रहती। " उसका जीवन काव्यात्मक हो जाता है, संगीतमय ज जाता है, सुगन्धमय हो जाता है।।। " " यह आप दो हजार पन्नों में भी नहीं बता सकते! गुलाब की सुगन्ध कोभी शब्दों में नहीं बाँध सकतेे " "
एक अद्भुत सम्मोहन पैदा हो जाता है, उसके व्यक्तऍतित वह व्यक्ति किसी को सम्मोहित कक का प्यत्न नहीं कका, उसका कोई भाव नहीं होता पप्तु उसका व्यक्तित्व कुछ ऐसा अनूठ हो ज है है है कि लोग सsal समsprechend समsprechend समsal समsprechend समsal अनूठ अनूठ ज ज हैं है है कि सsprechend समsprechend समsal समsprechend ऐस्मोहित सम्मोहित समsal समsprechend समsal अनूठ अनूठ ज ज हैं है है कि सsprechend समsprechend समsprechend समsal अनूठ अनूठ हो हैं हैं है है लोग सschieden " " है, कि अब यह व्यक्ति पूर्ण समर्पित है और तैयार है, तो वह उसके शरीर का, उसके मन का, उसके हृदय का रुपान्तरण कर देता है।
" दूर-दूर की घटनाओं का एक स्थान पर बैठे-बैठे अवलोकन भी कर सकता है, किसी ग्रह शुक्र, शनि पर भी जा सकता है और अन्य किसी को एहसास भी नहीं होगा, कि व्यक्ति में ये सब क्षमतायें हैं। एक बार में वह कई स्थानों पर प्रकट हो सकता है। एक स्थान में किसी का nächsten
" अंतिम दीक्षा अमृताभिषेक होती है और तब व्यक्ति के शरीर से अष्टगन्ध प्रवाहित होने लगती है और सामान्य लोग बेशक अष्टगन्ध का पूर्ण एहसास न कर पायें, परन्तु कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप से वह सुगन्ध उनको प्रभावित करती है और वे खींचे चले आते है और सद्गुरु प्राप्त "
सामीप्य का लाभ भी हर एक नहीं उठा पाता। " "
वे मुझे छोड़ना नहीं, किसी भी हालत में औ मुझे भी उनसे स्नेह है, उन्हें छोड़ नहीं सकता। गुरु शिष्य को नहीं छोड़ सकता। मेरे मना करते-करते वे आते ही है। जब दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, तो जैसे मैं देख सकता हूँ आप भी उनको देख सकते है और विराट स्वरुप को दिखाने के लिये चर्म-चक्षुओं के अलावा अन्य सूक्ष्म दृष्टि देने की आवश्यक है और यही प्रक्रिया है राज्याभिषेक आदि दीक्षाओं की-पहले ज्ञान दृष्टि "
हम गुरु को वास्तव में पहचान सकते हैं। उससे पहले हम गुरु में स्थित नारायण को नहीं पहऒ हमारी दृष्टि मात्र उसके नर स्वरुप तक सीमित रहती रहती " " " सब समाप्त हो जायेगा औfluss यह सब ज्ञान, ये सब मंत्र, लोगों को ज्ञात ही नहीं ही " किस प्रकार से होगा?
कैसे यह ज्ञान बना रहे? समझ नहीं आता है। " " " आपकी कोई इच्छा, स्वार्थ नहीं हो। " " वे गु गु कह हे हे थे- " हजार दो हजार साल तपस्या प्राप्त कक प भी शायद ही आपका सान्निध्य प्राप्त हो सकता है है।।।।।। ।sprechend परन्तु प्रतीक ही हम बनें, यह बड़ी बात है। "
" ऐसी उच्च दीक्षा आप सदगुसदगु से प्राप्त क पाये, ऐसा मेा आशीआशी्वाद है- है- है- है- है- है- है- है- है-
'' आशीर्वाद आशीर्वाद आशीर्वाद''
''परम् पूज्य सद्गुरूदेव कैलाश श्रीमाली जी''
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