ध्यान और शरीर दोनों अलग-अलग हैं, इस शरीर के माध्यम से ध्यान नहीं हो सकता, शरीर तो केवल बाह्य तरंगों को स्वीकार करता है और अपनी तरंगो को दूसरों की ओर प्रेषित करता है, जिसके माध्यम से उसके मन के भाव या अन्दर के विचार " "
शा तो अपने आप में बहुत छोटा सा भ है- " "
श? भी एक सिंहासन है- खड़ा है। " एक पशु ही दूसरे पशु को समझा सकता है। " "
" " " हजाों-लाखों व्यक्तियों में से कोई एक बि बि ऐस ऐस निकल ज जाता है, जो उनकी पकड़ क क आगे की क क्िया प्राम कक लेतलेत लेत है।।।।।।।।। क्िया पsprechung हजाों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक ही चेतना प्राप्त होती है जो उनकी उंगली पकड़ क आगे बढ़ने की क्िया प्राभ कक लेत लेत है है।।।। कsal क क्िया प्राम कक लेत है है।।।।। क कsal क क क्िया प्राम कक लेत है है है।।।।। क कsprechung हजाों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक में ऐसी चेतन चेतन होती है, जो उनकी वाणी को समझ सकता है।।।। उनकी उनकी व व व व सकत है है।। है है है है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। wहै हजारों-लाखों व्यक्तियों में से किसी एक में ही ऐसे भाव जाग्रत होते हैं, जब वह सद्गुरू की, उस अद्वितीय व्यक्तित्व की उंगली पकड़ सकता है, उनके पास रह सकता है–उनके साथ चलने की क्रिया प्रारम्भ करता है, वह पहचान लेता है, उसकी आँख पहचान लेती है- 'यह व्यक्तित्व साधारण नह ैह नह
" सुख-दुःख व्याप्त होता है, यह भी उदास होता है, ोतोता है, चिन्ता कका है, मगमग फि भी वह इन सबसे प प प है।।।।।।।।। फि फि चिन सबसे प क।।।।।।।।।।।।।। फि फि फि चिन सबसे प है।।।।।। मग मग फि फि फि चिन सबसे प है।।। मग फि फि फि फि फि चिन इन प है।। मग मग फि फि फि फि फि फि इन सबसे प प।। मग मग फि फि फि फि भी इन सबसे प प प है है मग फि फि फि फि भी इन सबसे प प प प प। मग मग
वह. तब विराट रूप का अपने-आप में दर्शन हो जाता है। " " सद्गुरू चाहें तो किसी योग्य व्यक्ति को छलांग लगवा कर सातवीं अवस्था में पहुँचा सकते हैं, जैसे कृष्ण ने व्यामूढ़ अर्जुन को, मोहग्रस्त अर्जुन को एक छलांग के माध्यम से ध्यान की सातवीं अवस्था तक पहुँचा दिया— और पहुँचाते ही उसकी जो हजार-हजार आँखे जाग्रत हुई, उसके माध्यम से वह कृष्ण - सामान्य दिखाई देने वाले कृष्ण के वि वि वि ूप को देख सक सक सका। ठीक उसी प्रकार सद्गुरू, वह अद्वितीय विभूति, यदि चाहें तो किसी भी शिष्य, किसी भी व्यक्ति को ध्यान की उस अवस्था में पहुँचा सकते हैं, जहाँ उस व्यक्ति के सामने वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है, उसकी अद्वितीयता स्पष्ट हो जाती है, उसकी महानता स्पष्ट हो जाती है।
"
देहगत अवस्था में ही स्ततogr. " " " " दोनों एक ही स्थिति में ही प प Entwickel उच्चकोटि की स्त्रियां भी हुई हैं- कात्यायनी, मैत्रेयी, चैतन्या, वैचार्या, गौतमी— ये सब अपने आप में अद्वितीय विभूतियां थीं, उतनी ही ब्रह्म को प्राप्त होती हुई, उतनी ही मनुष्यता को प्राप्त होती हुई, उतनी ही ध्यान अवस्था को प्राप्त होती हुई , जैसे कि एक ऋषि हुआ है। " केवल बाह्य ूप से केवल श श श क क क हैं-
" "
"
" " " " " जिसको पूर्णानन्द कहा गया है।
" " " " "
" " है, जिस तत्व को सद्गुरू कहा गया है।
" सामान्य गुरू या सामान्य साधु आश्रम से चला जाये, तो शिष्य प्रसन्न होते हैं- यह चला गया, अब हम अपनी मनमौजी कर सकेंगे, मनमर्जी से कूद सकेंगे, नाच सकेंगे, मजे से खा-पी सकेंगे– – और दौड़ सकेंगे, जो कुछ करना होगा अच्छा या बुरा कर सकेंगे। " "
" " है, सब कुछ समाप्त हो गया है, शिष्य मृतप्राय से हो जाते हैं, उनमें धड़कन हती हती हती चेतना नहीं हती हती हती। "
"
" यदि. आप.
" यह. " क्रिया प्रारम्भ कर रहा है। " "
" " उसका मीठा पानी समाप्त हो गया और वह खारे पानी में बदल गई— उसकी उसे कोई परवाह नहीं, क्योंकि समाप्त होकर वह अपने आप में महासमुद्र कहलाई, फिर छोटी सी नदी नहीं कहलाई, वह परमब्रह्म में लीन हो गई।
" अवस्था है, जो पूsal
" " " "
" उसको उठाता है और सीधे ही उसे उस ध्यान के महासमुद्र में उतार देता है— जो क्षीर सागर है— जहां पूर्णब्रह्म विराजमान हैं, जहां शेषनाग की शय्या पर ब्रह्म लेटे हुए हैं, जहां पूर्णता उनके चरण दबा रही होती है- उस अवस्था पर सद्गुरू चाहें "
" " इसलिये वहां- " " कहा गया है।
" " जब एक अदना सा व्यक्तित्व पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तब पूरा संसार उसकी ओर ताकने लग जाता है, तब हजारों-लाखों लोगों का कल्याण करने में वह समर्थ हो पाता है, फिर भले ही वह गृहस्थ में दिखाई दे- वह शादी भी कर सकता है, वह हानि-लाभ, सुख-दुःख, में हंसता-मुस्कता हतहता है, मग इसके स स ही स साथ वह आप आप में पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू पू से भी हत हत हत हत हत है है।।।।।।।। पू पू पू पू पू पू पू पू है।।।।।।।।।।।।।।। पू पू पू पू पू पू पू पू सजग हत हत है है।।।। में पू पू पू पू पू पू पू पू है।।।। आप ≤
" " " उसको तोड़ा जाता है, खींच कर तार बनाया जाता है, मगर फिर भी वह सोना उफ् नहीं करता, क्योंकि उसने समर्पण कर दिया है स्वर्णकार के हाथों में— और स्वर्णकार उसको ऐसा मुकुट बना देता है, जो मनुष्य नहीं देवताओं के सिर पर शोभायमान होता है। इसीलिये कबी ने कहा है- भीतर भीतर सहज के बाहर बाहर चोट।
" यदि मैं इसको तोड़ता हूँ, तो यह कहां जाकर खड़ा होहोह? oder? " इस कशमकश. "
"
सजगता का तात्प्य है- " " उसको यह मालूम होता है- मेरा लक्ष्य क्या है? उसको यह मालूम होता है- मुझे क्या करना है? " " " " " वह चाहे कुछ भी दे दे- क्यों आदेश दिया है? यह उनका काम है। यदि मैं समझ जाऊंगा तो मैं खुद ही गुरू न बन जाऊंगा?
" यदि दीपक बनायेंगे तब भी मैं अंधकार को दूर कर सकूत सुसुाही बना देंगे- " साक्षीभाव का तात्प्य है- " " जो. ये. मेमेा मूल लक्ष्य इनके बीच में स्वयं को समाप्त कका नहीं है है।।।। सम समाप्त इस शरीर के तल पर जीवित रहकर समाप्त होना नहीं है।
इस शरीर के तल से नीचे उतर कर उस जगह पहुँचना है— जहाँ पहुँचने पर ब्रह्मत्व प्राप्त होता है— जहाँ पहुँचने पर ईश्वरत्व प्राप्त होता है— जहाँ पहुँचने पर नारायणत्व प्राप्त होता हैं— और उस जगह पहुँचने पर ही पूरा संसार उसे देखेगा और आने वाली " "
" — और उस पीढ़ी का वह एक वरदायक व्यक्तित्व बनता है, क्योंकि अपनी पीढ़ी में वह उस जगह पहुँचा है, जो अपने आप में ध्यान की पूर्ण अवस्था है, जिसको पूर्णमदः कहा गया है, फिर भी वह साक्षीभाव से इस संसार में बना रहता है, " "
" " गया है, जिस मूर्ति को ब्रह्म कहा गया है।
प्रश्नः ब्रह्मचर्य क्या है? क्या गृहस्थ व्यक्ति भी ध्यान कर सकता है? साधु क्या है, क्या ध्यान के लिये साधुता या ब्ह्मच्य आवश्यक है?
" " जबकि, ब्ह्मचमच्य का तात्प्य है- जब व्यक्ति ब्ह्म तक पहुँचेगा, तभी्ह्मच्य अवस्था प्राप्त हो पायेगी। ब्रह्मचारी का ध्यान से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, ध्यान के लिये जरूरी नहीं है कि वह ब्रह्मचारी बने, क्योंकि ध्यान की अंतिम अवस्था ब्रह्मचर्य है— जब वहाँ पहुँचेगा, तब वह ब्रह्मचारी कहला सकेगा, प्रारम्भ में ब्रह्मचारी कैसे कहला सकेगा? "
साधुता का तात्पर्य—भगवे कपड़े पहनने की क्रिया को साधुता नहीं कहते हैं, जो एकाग्र रह सकता है, जो निर्विकार रह सकता है, जिसके मन में, जिसके चित्त में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता, जो किसी स्त्री को देखकर मोहान्ध नहीं होता , जो विषय-वासनाओं में लीन नहीं होता, जो अपने आप में साक्षीभाव सीख गया है, जिसने अपने आपको साध लिया है, जिसने मन को साध लिया है वह साधु है।
" तात्पर्य यह नहीं है कि, संन्यासी नहीं उतर सकता। यदि. " एक भावना हो, एक दृढ़ निश्चय हो- समर्पण का।
यहां तीनों चीजें आवश्यक हैं। एक पहला साक्षीभाव- दूसदूसा, समसम्पण- गुरू क्या कर रहा है? " "
"
" एक. " लक्ष्मी कहाँ से आ गई? फिर मंत्र-जप कहाँ से आ गया? . "
" " भी। जनक. " इसलिये पत्नी होना या प्ेमिका होना अथवा पति होना इन बातों का ब्ह्मचाी होने से मतलब नहीं नहीं है।। इसलिये ध्यान में माला, मंत्र की आवश्यकता होती ही नहीं औ जहाँ पप मंत्र जप, वहाँ ध्यान नहीं है।।।। .
"
" " उज्ज्वलतम हीरा कोयले की खदान से ही निकलता है। " " ज्यादा उभर कर सामने आयेंगे। "
यदि आपके कामुक विचार हैं आप उनको ूप ूप ूप ूप ूप ूप ूप।।।।।।।।। " " "
इसलिये इन कामुक और बुरे विचारों को दबाने की आवश्यकता नहीं है, इनको रूपान्तरित करने की आवश्यकता है— और रूपान्तरित करने के लिए संगीत आपका सहारा बन सकता है, चित्रकारी आपका सहारा बन सकती है, गायन आपका सहारा बन सकता है, प्रकृति आपका सहारा बन सकती है—और सबसे ज्यादा आप अपने आपका सहारा बन सक तन जब आप अपने से प प Entwickel जब आप अपने प प्ति मोहगiment " "
"
" " " "
औ ऊप ऊप तलछट अपने-आप में बाह कार्यों प नियन्त्ण प्रप्त कक की अदम्ब इच्छछ है वह वह वह वह च च च च च च वह वह वह वह क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क कsprechendes जह क क क क क क क क क क क क क क कsprechendes जह क क क क क क क क क क क क क कsprechendes जह क क क क क क क क क क क क कsprechendes हो क क क क क क क क क क क क कschieden " " " " " " "
" " जो सब कुछ छोड़ देता है, वह सब कुछ प्राप्त कर सकता ै टुकड़ों-टुकड़ों में खाने से कुछ प प्र्त नहीं हो सकता, क्योंकि हम-पत-पत्थ तो इकट्ठे क सकते हैं हैं मग मग ूप ूप देते हैं प प्र्त क क है उसको खो देते देते हैं हैं हैं हैं। पsal प क क है उसको खो देते देते हैं हैं हैं प पsprechungs " एक पत्नी, दो पत्नी, दस पत्नियां, प्रेमिकायें, बीस प्रेमी, पांच लाख रूपये, दस लाख रूपये- ये सब कुछ तो ऐसा ही है, जो यहीं पर है, आगे तो कुछ जा नहीं सकता, दरवाजे तक भी नहीं जा सकता, वहां तो आपकी अर्थी अकेली ही जायेगी।
" जिसने अखण्ड प्राप्त कक लिया, उसके सामने ऐसे ध्येय तो पत पत्थ की त त ही हैं।। " हैं। " " "
Was ist los?
ध्यान से आगे की जो स्थिति है, वह धारणा है। धाणा का मतलब है- " " उसको मैं सूर्य बनाने की ओर प्रवृत्त कर रहा हूँ। अभी. " " " "
" पूर्णता के साथ में है, अब यह वहां से हट नहीं सकताे " " जब वह धारणा शक्ति में खड़ा हो जाता है, उसके पांव में मजबूती आ जाती है, तब वह आगे की स्थिति प्राप्त कर लेता है— और जहाँ आगे की स्थिति प्राप्त होती है, वहां स्थिरता आने लग जाती है, जब हृदय में धारणा शक्ति प्रारम्भ "
इस अवस्था में पहुँचने प प प इससे आगे का कदम- धाणा शक्ति। यहाँ पहुँचने के बाद वह पीछे हटता ही नहीं है। " धाणा शक्ति ध्यान के की क क्िया है, वहाँ ध्यान अपने आगे बढ़ेग बढ़ेगा, उस उसको फि फि गु।।।।।।।। में में में में।।। सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सद सदschieden " "
'परमहंस'- हंस के समान स्वच्छ और निर्मल, जिसमें किसी प्रकार का मैल नहीं है, छल नहीं है, छूठ नहीं है, कपट नहीं है, मोह नहीं है— और किसी भी प्रकार की असात्विकता नहीं है— गोपियों के बीच रहकर कृष्ण अपने आप में योगेश्वर हैं— राधा से प्रेम करता हुआ भी वह अपने आपमें ब्रह्मचारी है— हजारों रानियों का पति होते हुए भी वह अखण्ड ब्रह्मचारी है- और महाभारत का युद्ध करते हुये भी वह अपने आप में जगद्गुरू है- 'कृष्णं वंदे जगद्गुरू' यह स्थिति धारणा शक्ति के माध्यम से ही सम्भव है। धारणा शक्ति तक पहुँचने के लिये कुछ प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन ध्यान तक पहुँचने के लिये तो सद्गुरू की जरूरत है और ध्यान के आगे धारणा तक पहुँचने के लिये सद्गुरू नहीं है, क्योंकि वहां तो अकेले ही यात्र करनी है, क्योंकि वहां से " उस जगह खड़े हो जायेगा- जिसे परमहंस अवस्था कहा ग या
oder?
चौबीसों घंटे. " " धड़कन के साथ एकाकार हो जाता है।
" , सजगता तुम्हाी धड़कन में है है है धड़कने धड़कने लिए हृदय को कहना नहीं पड़ता- " पल-पल तुम्हें उस रास्ते पर बढ़ायेगा ही। " यह सजगता जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
प्रश्नः क्या धर्म के माध्यम से ध्यान व धारणा संहवह?
" " "
" " मैं हिन्दू हूँ, इसलिये मुझे मंदि के स सामने झूकना चाहिये। मैं मुसलमान हूँ इसलिये मुझे मस्जिद के सामने झूकना चाहिये। यह 'हूं' शब्द अहंकार का द्योतक है, अहंकार तुम्हाे श≤ में में है है शशश तुम्हार धβ है- जो शशश धाण कक सकता है, वह्यान कैसे सकता है है, ध्यान तो बहुत आगे चीज चीज है है सातवें तल प है।।। बहुत आगे चीज चीज सातवें तल है।।। बहुत बहुत आगे की स सातवें तल है।।।। बहुत।। चीज स सातवें तल है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। आगे चीज स सातवें तल है।। बहुत बहुत की चीज सातवें प है। बहुत बहुत आगे चीज चीज सातवें प है। बहुत बहुत की चीज चीज स सातवें तल प है। बहुत बहुत की चीज है स सातवें तल प है। बहुत " इसलिये ध्यान के लिये- न निराकार है, न साकार है, न सगुण है, न निर्गुण है। न देवता है, न दानव है, न राक्षस है। न भाई है, न बहन है, न सम्बन्धी है, न रिश्तेदार है।
कुछ भी नहीं है, इसलिये धर्म के माध्यम से तुम ध्यान प्राप्त नहीं कर सकते, धर्म के माध्यम से धारणा भी संभव नहीं है, यह तो केवल बाह्य शरीर की अवस्था है— और शरीर की अवस्था से शांति और ध्यान को प्राप्त नहीं किया जा सकता ।
"
मेरी राय में कोई पद्धति गलत नहीं है। वह व्यक्ति गलत है, यदि उसे ज्ञान नहीं है यदि केवल केवल शब्दों के माध्यम से आपको भ भ्मित कका है, तो वह है है भ्धति गलत नहीं।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। क क क क क क क क क क क क क क क क क है है है है गलत. है भ भ गलत नहीं नहीं. नहीं क है है है वह है पद for "
इसलिये मैं यह नहीं कहता- कोई विधि गलत है। विधि तो सभी. " साधु या संत नहीं बन सकता।
" तो फिर वह बता ही नहीं सकता- 'ध्यान क्या चीज है?' " — शब्द अपने आप में ध्यान नहीं है।
मैं किसी भी विधि को गलत नहीं कहता हूँ। " प्रश्न यह है कि, क्या वे सही अर्थों में जानकार हैहैं? " । देखना यह है- " "
Was ist los?
जब ध्यान के बाद व्यक्ति धारणा शक्ति में पहुँच जाता है, तब गुरू अपने आप में निश्चिन्त हो जाता है- अब यह अपने रास्ते पर निरन्तर गतिशील होगा ही, क्योंकि बाहरी संसार की कोई विषय वासना, कोई भावना इनको गंदा नहीं कर सकती, इसको मैला " "
यदि. है— और उसको धारणा की ओर बढ़ा देता है— ज्योही वह पीछे हटता है, त्योंहि गुरू उसको धक्का देकर धारणा की ओर बढ़ा देता है। "
" ओर एक खतरनाक ढलान होती है। " " समाधि का मतलब है- अपने आपको पूर्ण रूप से विस्मकक समाधि के पांच अर्थ हैं-
.
समाधि का अβ है-
समाधि का अर्थ है- समस्त ब्रह्माण्ड में शरीर विननर
"
समाधि का अाथ है-
" सामने कोई मायने नहीं रखते। "
" " वेदव्यास ने कहा- " " .
समाधि अवस्था तक पहुँचा हुआ व्यक्ति जन्य वह चाहे तो अवतरित हो सकता है। "
पूपू्णमदः पूपू्णमिदं पूपू्णात् पूपू्णदमुच्यते पू~ णस्य पूपू्णमादाय पूपू्ण मेवा व शिष्यते।
उस पूर्ण में यदि पूर्ण मिला दें, तब भी पूर्ण रहेगा और निकाल दें तब भी पूर्ण ही रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड पूर्ण है, यह पृथ्वी पूर्ण है, मनुष्य पूर्ण है— और वही मनुष्य यह यात्र पूर्ण करता हुआ उस समाधि अवस्था तक पहुँचा जाता है - बूंद आप में समुद्र बन जाती है-
वास्तव में वे वे व्यक्ति- का सौभाग्य हो कि, उसको जीवन में सद्गुरू मिलें, कोई अद्वितीय व्यक्तित्व मिले, तो इस रास्ते पर गतिशील हो—मगर उसकी पहचान बहुत कठिन है— कठिन इसलिये, क्योंकि वह हमारे समाज का ही एक अंग बनकर रहता है, हमारे समाज की तरह ही "
लोग. " " " -यह भी चिन्तित होता है, फि फि इस में महापु जैसे कौन-कौन से चिह्न हैं? -
जिसके पास बैठने से ही आनन आनन्द, एक सुख की अनुभूति है है।।।।।।
जिसके पास बैठने से ही एक तृप्ति सी अनुभव िोती
Indem man neben wem sitzt, erfährt man Vollkommenheit.
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" शरीर तो वैसे का वैसा है मगर उसमें स्पन्दन नहीं हा
उस स्पन्दन को गुरू कहते हैं— उस स्पन्दन को पूर् णत्व कहते हैं— और ऐसे पूर्णत्व प्राप्त व्यक्ति को आप पहचान सकें— और आपका सौभाग्य हो कि, आप उसके पास पहुँच सकें— आपका अहोभाग्य हो कि, वह आपको अपना ले और यह आपके जीवन की सस्वोच्च निधि है, यदि वह आपको अपने पास खींच ले।
यह हजारों-हजारों जन्मों के पुण्य की प्रतीति है कि वह आपकी उंगली पकड़ कर उस रास्ते पर गतिशील करे- जो रास्ता मनुष्यता से समाधि अवस्था का है, जो रास्ता बूंद से समुद्र बनने की प्रक्रिया है, जो रास्ता जमीन से गौरी-शंकर पर्वत के "
आप. हृदय में आप स्थापित हो सकें। मैं ऐसा ही आपको आशीर्वाद देता हूं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Herr Kailash Shrimali
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