" " " निश्चय ही ये गुण स्वाभाविक हैं। उन्हें अर्जित नहीं करना होता है। हाँ हम चाहे तो उन्हें खो अवश्य सकते है। "
इसलिए मैं कहता हूँ कि वस्ततogr. सब वस्त्र बंधन है और निश्चय ही परमात्मा निर्वस्हरिर्वस् क्या अच्छा न हो कि तुम भी निर्वस्त्र हो जाओ? " " " "
मैं यह क्या देख रहा हूँ? यह कैसी निराशा तुम्हारी आंखों में है? " निनिाशा पाप है, क्योंकि जीवन उसकी धारा में निश्चय ही ऊऊ्ध्वगमन खो देता है है।। " " " " वह.
" वह अंधकार से एक हो जाती है। " " "
यह समाचार उतना दुखद नहीं है जितना कि आशा का मर जाा " " " यह भी कि आशा ही समस्त जीवन-आरोहण का मूल प्राण है? पर आशा कहाँ है? " आशा के अंगारे न हो तो तुम जीओगे कैसे? " असल में तुम कभी जीए ही नहीं। " जन्म ही जीवन नहीं है। जन्म मिलता है, जीवन को पाने के लिये।
इसलिए जन्म को मृत्यु छीन है है लेकिन लेकिन को कोई भी मृत्यु छीन नहीं सकती।।।।।। कोई भी मृत मृत मृतice जीवन जन्म नहीं है और इसलिए जीवन मृत्यु भी नहीं ही जीवन जन्म के पूर्व है और मृत्यु के भी अतीत है। जो उसे जानता है वही केवल भय और दुखों के ऊपर उठ पा ह किन्तु जो निराशा से घिरे है, वे उसे कैसे जानेंगे? वे तो जन्म और मृत्यु के तनाव में ही समाप्त हो जा तत " निनिाशा में साधना का जन्म नहीं होता, क्योंकि निाशा तो बोझ है औ उसमें उसमें भी किसी का जन्म नहीं होता। "
मैं कहता हूँ, उठो और निराशा को फेंक दो। उसे तुम अपने ही हाथों से ओढ़े बैठे हो। उसे फेंकने लिए. तुम्हारे अतिरिक्त और कोई उसके लिए जिम्मेवारऀ मनुष्य जैसा भाव करता है, वैसा ही हो जाता हैं। उसके ही भाव उसका सृजन करते है। वही अपना भाग्य-विधाता है। " स्वयं के आत्म-परिवर्तन की कुंजी को पा जाओगे। " " सिवाय तुम्हाे ख्याल के उनका कहीं कोई र र र र र र र र नहीं है है।।। "
क्या निराशा से बड़ी और कोई कैद है ? नहीं ! " " निaz से से जंजी जंजी जंजी भी नहीं है, क्योंकि लोहे जंजी जंजी तो म मात्र शशश को ही बांधती हैं, निनिाशा तो आत्मा को ब बांध लेती है।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। तो आतsprechung को भी बांध लेती है।।।।।। तो आत्मा को बांध लेती है।।।।।।।। आत्मा को बांध लेती है।।।।।
निराशा की इन जंजीरों को तोड़ दो! उन्हें तोड़ा जा सकता है, इसीलिए ही मैं तोड़ने कह ह ह ह हूँ हूँ।।। उनकी सत्ता स्वप्न सत्ता मात्र है। उन्हें तोड़ने के संकल्प मात्र से ही वे टूि "
निराशा स्वयं आरोपित दशा है। आशा स्वभाव है, स्वरूप है। निराशा मानसिक आवरण है, आशा आत्मिक आविर्भाव। मैं कह रहा हूँ कि आशा स्वभाव है। क्यों? " "
" औऔ पदार्थ की पपमात्मा की यात्रा क्या आशा के बिना संभव है है है है है? " " उससे ही प्रमाद और आलस्य उत्पन्न होता है।
" पपात्मा के पूपू्व औऔ पपात्मा के अतिअति्त औ कोई गंतव गंतव्य नहीं है।। इसे अपनी समग्र आत्मा को कहने दो। "
" " आकाश को छूते वृक्षों को देखो! उनकी जड़ें अवश्य ही पाताल को छूती होगी। "
जितनी तुम्हाी अभीप्सा की ऊंचाई होती है उतनी ही तुम्हाी शक्ति की गह गह गह गह भी होती है है।।।।।। शक शक्ति की गह गह गह है है।. क्षुद्र की आकांक्षा चेतना को क्षुद्र बनाती है। तब यदि मांगना ही है तो परमात्मा को मांगो। " क्योंकि प्रथम ही अंततः अंतिम उपलब्धि बनता है। " " " " "
परिस्थितियों का बहाना मत लेना। परिस्थितियां नहीं, वह बहाना ही असली अवरोध बन जा ह " वैसा होना असंभव है। "
अंधेअंधेा कभी इतना घना नहीं होता औ न ही प पप्थितियां इतनी प्तिकूल होती है वे प प्काश के में में बाधा बन बन सकें।।।।।। प प्काश . " जिसमें पल-पल परिवर्तन है उसका मूल्य ही क्या? परिस्थितियों का प्रवाह तो नदी की भांति है। " वह कौन है? वह तुम्हाी चेतना है, वह तुम्हाी आत्मा है, वह अपने अपने वास्तविक स्व में स्वयं हो! सब बदल जाता है, बस वही अपरिवर्तित है। उस ध्रुव बिंदु को पकड़ों और उस पर ठहरों।
" " उसकी स्मृति को लाओ। " " "
. " निराशा को हटाओं और देखो, वह कौन सामने खड़ा है ! क्या यही वह सूर्य नहीं है जिसकी खोज थी ? क्या यही वह प्रिय नहीं है जिसकी प्यास थी ? क्राइस्ट ने कहा है, मांगो और मिलेगा। खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे। " Lass es! "
" " साधक का संकल्प प्राथमिक है। " . " उसे गुरू परमशक्ति का सहारा भी लेना होगा। "
" " एक ज्ञान है, जो सीखने से मिलता है एक एक ज्ञान है जो अनसीखपन से मिलता। जो सीखने से मिले, वह कूड़ा-करकट है। जो अनसीखने से मिले, वही मूल्यवान है। सीखने से वही सीखा जा सकता है, जो बाहर से डाला जा ता " जीवन मिट्टी का एक दीया है, लेकिन ज्योति उसमें मृणमय नहीं चिन चिन्मय की है।।।।। मृणमय की नहीं चिन चिन चिन चिनschieden दीया पृथ्वी का, ज्योति आकाश की, दीया पदार्थ का, ज्योति पपात्मा की।।।।। ज्योति दीया एक अपूर्व संगम है। " " ज्योति खो जाये, दीये का क्या मूल्य? ज्योति न हो तो दीये का क्या करोगे?
" जिन्होंने भी आत्मा को जाना, वे श श को धन्यवाद देने में सम सम सम सम सम सम सम हो सके।।।।।। धन धन्यवाद देने सम सके।। धन धन धनsprechung जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना वे या तो शरीर की मान कर चलते रहे, ज्योति दीये का अनुसरण करती रही और निरंतर गहन से गहन अचेतना और मूर्च्छा में गिरते गये या जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना, उन्होंने व्यर्थ ही शरीर से, दीये से संघर्ष मोल ले लिया। जो साथी हो सकता था, उसे शत्रु बना लिया।
" " कीचड़ से कमल पैदा होता है। "
कीचड़ से दुश्मनी मत करना, अन्यथा कमल पैदग ही न होन " कीचड़ कितना ही कीचड़ लगे, कहां, संबंध भी नहीं मालूम पड़ता! कमल सुंदर, अपूर्व सुंदर, अद्वितीय रेशम-सा कोमल! कहां कीचड़ गंदी दुर्गन्ध भरी! " तो तुम भी कहोगे कि इन दोनों में कैसा संबंध? कहा कीचड़, कहां कमल! लेकिन तुम जानते हो, कीचड़ से कमल पैदा होता है। मृण्मय में चिन्मय का जागरण होता है।
" " "
एक प्राचीन कथा है। " तीनों ही जुड़वा पैदा हुये थे, इसलिए उम्र से न किया जा सकता था।। तीनों एक-से बुद्धिमान थे। तो उसने अपने गुरू से सलाह ली। गुरू ने उसे एक गुर बताया।
" " . लोहे की तिजोड़ी चोरों का भी क्या डर! और कौन चोर लोहे की तिजोड़ी तोड़ कर बीज चुराने आयइ! वह निश्चित रहा। बाप आयेंगे तो, लौटा देंगे।
" क्या करूं? बीज जीवित कैसे रहें? उसने सोचा बाजार में बेच दूं, तिजोड़ी में रूपयख दयख रें बाप जब वापस आयेंगे, बाजार से बीज खरीद कर लौटा देंं
तीसरे ने सोचा कि बीज का अर्थ सी " तो. ये. "
तीन वर्षों बाद पिता वापस लौटा । पहले बेटे को उसने कहा। पहले बेटे ने तिजोड़ी की चाबी दे दी। " बीज कोई लोहे की तिजोड़ीयों में बंद करने को थोड ़ी! " वे सब सड़ गये औ औ जिन बीजों से फूलों.
बाप ने कहा-तुमने संभाला तो, लेकिन संभाल न पाये। तुम मेरी सम्पत्ति के अधिकारी न हो सकोगे। तुम नासमझ हो। जितना मैं तुम्हे दे गया था, उतने भी तुम वापस न काी " " ये मृत्यु हैं।
दूसरे बेटे से कहा। दूसaz बेटा भागा ूपये लेक लेक लेक बीज ख ख क ले आय आया-ठीक उतने बीज जितने ब बाप ने उसे था था। " यह तो जड़बुद्धि वाला व्यक्ति भी कर लेता। इसमें तुमने कुछ बुद्धिमता न दिखाई औ बीज का तुम र र न समझे।।। बीज का मतलब ही यह है कि जो ज्यादा हो सकता था। उसे तुमने रोका और ज्यादा न होने दिया। तुम पहले वाले से योग्य हो, लेकिन पर्याप्त नहीं।
तीसरे बेटे से पूछा कि बीज कहाँ हैं? तीसतीसा बेटा बाप को के पीछे ले गय गयाँ सार बगीचा फ़ूलों औ बीजों बीजों भ भभा था। उसके बेटे ने कहा, ये रहे बीज। आप दे गये थे, मैने सोचा इन्हे बचा क खने में मौत हो सकती सकती है।। " " । हजार गुने करके आपको वापस लौटाता हूँ।
स्वभावतः तीसरा बेटा बाप की सम्पत्ति का मालिक हो हो पपात्मा ने तुम्हें जितना दिया है से कम उतना तो लौटाना। अगर बढ़ा न सको— बढ़ा सको तब तो बहुत अच्छा हैं।
" " " समझ ले तब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। "
जब भी ज्ञान का जन्म होता है, तभी करूणा का जन्म हो का जन्म हो जो क्यों? " ऊर्जा नष्ट नहीं होती। " "
ऊर्जा क्या होगी? " वह सारी शक्ति करूणा बन जाती है। महाकरूणा का जन्म होता है। धन की वासना अकेली नहीं है। पद की वासना भी है। तुम पद पाने के लिये धन का भी त्याग कर देते हो। चुनाव में लगा देते हो सब धन, कि किसी तरह मंत्री जी ही लेकिन मंत्री की कामना भी पूरी कामना नहीं है। तुम्हारी सभी कामनाएं अधूरी-अधूरी हैं। हजार कामनाये है और सभी में ऊर्जा बंटी है। " तुम एक अदम्य ऊर्जा के स्रोत हो जाते हो। एक प्रगाढ़ शक्ति!
" तब तुमsprechung जो कारागृह में हैं, उन्हें खुला आकाश देने में ला लग जग "
" " जब भी कोई मरता है तो मन सोचता है, मौत रोज दूसरे की की मैं तो कभी मरता नहीं, कोई और मरता है। लेकिन हर मौत तुम्हारी मौत की खबर लाती है। जो पड़ोसी को हुआ है, वही तुम्हे भी हो जानेवाला हैा
" " मौत सब मिटा देती है। " सब डूब जाता है।
" मौत का स्मरण धर्म की प्राथमिक भूमिका है। अगर मृत्यु न होती तो संसार में धर्म भी न होता। " " " क्या तुम उसी भांति दुकान जाओगे?
उसी प्रकार ग्राहकों का शोषण करोगे? क्या उसी भांति व्यवहार करोगे, जैसा कल किया था? " क्या मन में वासना उठेगी, काम जागेगा? राह से गुजरती कार मोहित करेगी? किसी का भवन देख कर ईर्ष्या होगी? नहीं सब बदल जाएगा।
" " " फल लगते है निश्चित, केवल दुःख के लगते हैं। " "
श? अगअग तुमने श श से शत्ुता की औ श श श को दब औ गलाने में गये गये तो तुम वंचित ह जाओंगे, क्योंकि उस संघsal से कमल होग होगा।।। ।sprechung कमल तो पैदा होता है कीचड़ के सहयोग से। इस सहयोग का नाम ही योग की कला है। योग अस्तित्व की दई बीच एक को खोज लेने की कला है जहाँ दो दिखाई पडें- " तुम्हारे भीतर की कीचड़ तुम्हारा कमल बन जायेगा।
Seine Heiligkeit der Sadhgurudev
Herr Kailash Chandra Shrimali
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