इतिहास साक्षी है कि जब-जब मनुष्य का गुरू से, ईश्वर से, प्रकृति से विश्वास समाप्त हुआ है, तब-तब उसके जीवन में निराशा व हताशा का विस्तार होता है, और इस अविश्वास का मुख्य कारण है- अयोग्य व्यक्तियों का गुरू पद पर स्थापित हो जाना। " " "
" " " एक महात्मा के पास एक व्यक्ति नित्य ही जाता रहता ी " वह नित्य नियम से जाता, बैठता और अपनी जिज्ञास प्र प्रक " " प्रा weil
जब उसके चेह चेह से विक्षोभ पiment " उतure वह व्यक्ति प्सन्न हो गया, कि संभवतः मुझे केाई दीक्षा मिलेगी औ मैं ब्ह्म के दद्शन कक लूंगा। नदी. " " व्यक्ति ने कहा काश! मुझे किसी भी तरह से श्वास लेने का अवसर मिल जाये। "
गुरू दीक्षा व शक्तिपात की क्रिया के माध्यम से अपने शिष्य के मन में भी आलोड़न-विलोड़न का तीव्र दबाव देते हैं, और जिनके मन में अपने ईष्ट व गुरू के प्रति लालसा होती है, उस क्षण ब्रह्म से साक्षात्कार कर पूर्णत्व की प्राप्ति हो जाती है । तो उस चैतन्य सत्ता की पावनता शुद्ध वायु की तत प्राप्त होगी ही।। " अपने भीतार छटपटाहट पैदा करनी होगी। और लोगों को शिष्य बनने की प्रक्रिया का ज्ञान ही नहीं है, यदि एकाध को है भी, तो भी उन्हें अपने अन्दर शिष्यत्व धारण करने के लिये सर्वप्रथम अपने अहंकार, मैं को समाप्त करना होगा-और जब ऐसा होगा, तब व्यक्ति में श्रद्धा, विश्वास और गुरू-चरणों के प्रति प्रेम का भाव उत्पन्न होगा
" अपने जीवन को, अपने अस्तित्व को समाप्त क देने की कला ही शिष्यता है।। " समस्त द्वैत समाप्त होकर अद्वैत का भाव आ जाति "
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और जब एक शिष्य के जीवन में इस प्रकार की घटना घट ित होती है, तब वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त क रता है, तब अद्वैत भाव आने पर उसकी स्वतः पूर्ण कुण ्डलिनी जागरण की क्रिया सम्पन्न होती है, फिर वह उस कदम्ब के वृक्ष का रूप धारण कर सकने में सक्षम हो पाता है, जिसकी छाया त ले समस्त विश्व, समस्त मानव जाति और यह समाज सुख-शा ंति का अनुभव करता है, ज्ञान की शीतलता प्राप्त क रता है, ब्रह्मत्व की चांदनी में दमकते हुये अमृत त्व के मानसरोवर में अवगाहन करता है।
इस झूठ, छल, प्पंच, कपट, माया-मोह के को तोड़त तोड़त हुआ जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त कβ है है औ औ तब इस सम सम के अतृपschieden लोगsal स कह हैं हैं हैं तब तब सम समाज अतृपsal लोगsal स कह हैं हैं तब- ''चलो दूर कदम्ब की छांव तले''।
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