अर्थात् सम्पूर्ण जगत् ही क्षणिक है, यह क्षण-क्षण में उत्पन्न होता है, क्षण-क्षण में नष्ट भी होता है। यह बंध्यापुत्र की भांति तुच्छ भी है क्योंकि वास्तव में व्यापक चेतन में जगत् तीनों काल में नहीं है। यह जड़ है, माया का प्रवाह है।
ऐसे सक्षम वेदान्ती उपदेशो का प्रभावी प्रतिपादक नास्तिक कैसे हो सकता है? यह प्रचार तो उन द्वेषी लोगों का कुप्रयास था जो धर्म के नाम पर समाज को मूर्ख बना रहे थे और समाज में वामाचारी कुत्सा को भड़काने में लगे हुये थे। बुद्ध के जीवन में क्रूरता और हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं था। एक बार की बात है, जेठ का महीना था।
कड़ाके की गर्मी की एक दोपहर एक आदमी बकरी के दो बच्चे कन्धे पर लादे चला जा रहा था। भगवान बुद्ध ने जब यह देखा तो कौतूहलवश पूछ ही लिया, कि तुम ये बच्चे क्यों ले जा रहे हो? आदमी ने कहा कि इस नगर से थोड़ी दूर पर पड़ोसी नगर के राजा के अपने यहां चल रहे एक बहुत बड़े यज्ञ की पूर्णाहुति में बलि के लिये ही ये बच्चे ले जा रहे हैं।
अब क्या था, बुद्ध भी उस व्यक्ति के संग हो लिये। राजा के यज्ञ में पहुंच कर उन्होंने पंडितों को उनके उद्देश्य की क्रूरता पर काफी तर्क-वितर्क करके उन्हें अपने बलि के मन्तव्य को बदलने के लिये कहा। परन्तु इसका उन पर कोई प्रभाव ना पड़ते देख बुद्ध ने कहा-
अर्थात् जैसे तुम्हारे देव हैं बलि भी वैसी ही हो यही विधान है। अब अगर तुम्हारे देवता की मूर्ति पत्थर की है तो फिर तुम इसके लिये एक जीवित प्राणी को क्यों मारते हो? पत्थर का बकरा लाकर उसकी बलि दो।
लेकिन जब बुद्ध का यह तर्क भी काम न आया तब उन्होंने कहा प्राण लेना ही यदि यज्ञ का आवश्यक विधान है तो इन बकरों के स्थान पर मेरे ही प्राण ले लिये जाये। इस तर्क के सामने तथा बुद्ध देव की दया के सामने राजा तथा सभी पंडित निरूत्तर तथा निरस्त हो गये। उन्होंने बलि का प्रस्ताव की छोड़ दिया। इस कथा से यही प्रतीत होता है कि जिनका दया भाव इतना व्यापक हो कि समस्त जीवन जगत के लियें ही उसमें स्थान हो, वह एक जन्तु के प्राणों के लिये स्वः के प्राणों की आहुति देने का प्रस्ताव करता हो, ऐसा महान् व्यक्तित्व धर्म द्रोही कैसे हो सकता है? महात्मा बुद्ध सभी जीवात्माओं को एक ही परमात्मा का अंश मानते थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य रक्षण के सूत्र को भी अपने उपदेशों में मुख्य स्थान दिया था। उन्होंने कहा कि सच्चे धर्म का अनुसरण करो न कि पाखण्ड का। उनका कहना था कि परमात्मा जीवात्मा से पृथक कोई दूसरी अनहोनी सत्त्ता नहीं है। मनुष्य का अज्ञान ही उसे ऐसा सोचने पर बाध्य करता है। स्वयं को उस परमसत्ता का अंश मानते हुये सच्चे धर्म को धारण करना ही सच्चे धार्मिक होने की निशानी है।
उनके काल में तंत्र क्षेत्र में वाममार्गियों का तंत्र को लेकर कुत्सित एवं लज्जाजनक आचार व्यवहार अपनी सभी हदे पार कर गया था। ये लोग मुक्त यौनाचार तथा नरबलि का तंत्र के नाम पर खुला प्रयोग करते थे। ऐसे समय में महात्मा बुद्ध जैसे परम वैराग्यवान संत का देश के आध्यात्मिक दृश्य पटल पर आविर्भाव हुआ था। उनके वैराग्य के सामने तो भृर्तहरि का वैराग्य भी मंद था। भृर्तहरि को तो कामुक स्त्री के व्यभिचारों से वैराग्य उपजा था। तीन सौ रानियां तथा समस्त विषय-सुखों का आधिक्य था उनके पास जिसका थक जाने तक पूरा उपभोग किया उन्होंने और इसी अतिरेक में उन्हें वैराग्य हुआ संसार से। परन्तु महात्मा बुद्ध तो संस्कारी वैराग्यवान थे। भृर्तहरि की रानी पिंगला भ्रष्टा थी जिसके व्यभिचारों के प्रकट होने पर उनको देहसुख के सभी विषयों से घृणा हो गई थी। इसके विपरीत महात्मा बुद्ध जन्म से ही उपराम थे। राजपाट, धन व भोग था आज्ञाकारिणी, पतिव्रता, सुन्दर सन्नारी स्त्री थी उनकी रानी। माता महामाया तथा पिता कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के एक मात्र पुत्र थे वे। एक राजकुमार होने के कारण, अभाव तो कभी उन्हें किसी वस्तु का हो, यह सम्भव ही नहीं था। फिर भी वे हर सुख में दुःख देखने वाले थे। यहां तक कि खेत जोतने के लिये यदि हल भी चलाया जाता तो उससे होने वाले जन्तुओं की हत्या में वे हिंसा देखकर दुःखी होते थे।
विवेकी पुरूष के लिये विषय भोग ही दुःख का जनक है। संसार की ओर वे उदासीन ही रहें सदा। उनके जनक शुद्धोधन को उनके इस वैरागी स्वभाव पर कभी-कभी चिन्ता हो जाया करती थी। एक दिन राजपुरोहित तथा इष्टजनों से विचार विमर्श करके उन्होंने तय किया कि यदि किसी प्रकार से उनका विवाह कराके उन्हें संसार के बंधन में डाला जाये तो कदाचित् इस वैराग्य और उदासीनता से कुमार गौतम को बाहर लाया जा सकेगा। युवावस्था में सुन्दरी स्त्री के संसर्ग में संसार का मोह हो ही जायेगा। ऐसा जानकर राजा ने उनका विवाह करने का प्रस्ताव किया। कुमार गौतम धर्म संकट में पड़े। उन्होंने आठ दिन का समय मांगा और पिता से कहा कि अपना निर्णय वे आठ दिनो के बाद ही देंगे।
लम्बे सोच-विचार के बाद यही तय किया कुमार ने कि यदि विवाह से इन्कार किया तो पिता की आज्ञा का द्रोह होगा जिसके वे दोषी बनेंगे। अतः वे विवाह करके ही संसार से पृथक रहेंगे। ऐसा विचार करते ही, उन्होंने धार्मिक विचार वाली, सुन्दर, सुशील, मृदुभाषिणी, सत्य बोलने वाली, सेवाभावी, शुद्ध तथा शान्त चित्त की ऐसी स्त्री को ढूंढ़ने का परामर्श अपने पिता को दिया जो कलह प्रिया न हो और उनके विचारों को आदर करना जाने। और ऐसी ही थी उनकी रानी गोपा। अपने मामा दंडपाणि की 16 वर्षीया पुत्री से ही विवाह किया उन्होंने एक पुत्र हुआ राहुल परन्तु उनके जीवन का घटना क्रम कुछ ऐसा है कि कुछ काल के इस सांसारिक व्यामोह में पड़ने के बाद वे पहले से भी अधिक व्यथित और क्लान्त हो उठे। वृद्धवस्था तथा मृत्यु के दुःख ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि जब अन्त यही है तो इतना जंजाल क्यों? और फिर एक दिन उनके जीवन में एक क्रान्तिकारी मोड़ आया। उन्होंने सन्यास को ही मुक्ती मार्ग तय किया और इसी प्रयोजन से एक दिन चुपचाप सभी मोह-बन्धनों को तोड़ कर रात्रिकाल में ही वे स्त्री-पुत्र को सोता छोड़ कर चुपचाप निकल गये। भिक्षुक वेष में जगह-जगह भ्रमण करते तथा कठोर तप करते हुए अन्ततः वे आलग्राम जा पहुंचे। यहां उन्होंने वट वृक्ष के नीचे एक स्थान पर छः वर्षों तक कठोर तप किया। निर्जल, निराहर, सर्दी, गर्मी, वर्षा सभी सहा। उन्होंने और अनवरत् सत्य की खोज में लगे ही रहे। एक रात तप के प्रभाव से अत्यन्त दुर्बल हुये भगवान बुद्ध ने बेहोशी की अवस्था में ही एक अनुभूति प्राप्त की। उन्होंने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में उन्होंने देखा कि एक देवपुरूष के हाथ में तीन तारों वाली एक वीणा है। वीणा का एक तार बहुत ढीला है, दूसरा बहुत कसा हुआ तथा तीसरा तार ठीक प्रकार से तना हुआ है। पहले दोनों तारों के स्वर बेसुरे ही उठते थे परन्तु तीसरे तार पर ठीक स्वरों की उत्पत्ति थी इस स्वप्न का निष्कर्ष यह निकला कि बहुत भौतिक सुखों की गुलामी, या फिर बहुत अधिक स्वयं को तपाना, ये दोनो ही ठीक रास्ते सत्य दर्शन एवं आत्म साक्षात्कार के नहीं हैं। एक संतुलन रखना होगा इनके मध्य में। अब उन्होंने उसी गांव से थोड़ा आगे एक जंगल में वट वृक्ष के नीचे पुनः समाधि लगाई। उस वृक्ष के नीचे पड़ोस के एक गांव जिसका नाम सिनाई ग्राम था, वहां के जमींदार की स्त्री सुनीति ने पुत्र प्राप्ति के लिये मन्नत मांगी थी।
मन्नत के पूर्ण होते ही वह उस पेड़ के नीचे प्रार्थना करने वापस खीर लेकर आई। वहां जो उसने भगवान बुद्ध को समाधिस्थ देखा तो समझा कि शायद उस पेड़ से ही उसके इष्ट देव प्रकट हुये हैं। उसने उसी स्थान को अच्छी तरह लीप-पोत कर साफ किया और बुद्ध देव की विधिवत् पूजा करके उन्हें ही खीर का भोग लगा दिया। समाधि टूटने पर सामने खीर परोसी देखकर बुद्ध देव नदी की ओर गये, वहां स्नान करके उन्होंने खीर खाई। इसके बाद जब भगवान बुद्ध पूर्ण तृप्त होकर समाधि में पुनः बैठे तब उन्हें महासमाधि लगी और उसमें ही उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई तथा उनका नाम सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध हुआ।
इसके पश्चात् तो उन्होंने कई जगहो में भ्रमण किया तथा जनसमुदाय को इकठ्ठा करके उपदेश दिये, भगवान बुद्ध ने कहा है कि जीवन कर्मों को पूर्ण करने से, जिनमें तीन देह के, तीन मन के तथा चार वाणी के मूल कर्म हैं, मनुष्य का इहलोक और परलोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं। परस्त्री गमन, जीवों पर हिंसा तथा चोरी ये देह कर्म हैं। झूठ बोलना, दूसरों को अपशब्द कहना, परनिन्दा, परचर्चा, व्यर्थ बकवास तथा दूसरों को कष्ट पहुंचाने वाले व्यंग्य आदि, ये चार वाणी मूलक कर्म हैं। ईर्ष्या-द्वेष रखना, दूसरे का बुरा चाहना और हर समय शंका की स्थिति में रहना ये चिन्तन मूलक मन के तीन कर्म हैं। जो भी व्यक्ति अपना हित चाहता है उसे इन कर्मों से सतत् बचना चाहिये।
किसी भी जीव को दुख न देना, चोरी तथा लूटपाट से बचना, स्त्री में सदैव मातृ भाव को देखना। वाणी सदा ऐसी बोलना जो लोगों को प्रिय लगे। कटु वाणी, किसी का तिरस्कार, किसी का मजाक, व्यंग्यादि करके उसके चित्त को ठेस पहुंचाना, किसी सत्पुरूष के लक्षण नहीं है। व्यर्थ आलस्य करके समय बरबाद नही करना, लोभ न करना परश्री कातर न होना, क्रोध, घृणा तथा बदनीयती से सदा बचना, मन को सदैव दर्पण की भांति स्वच्छ रखना। ये कुछ उपदेश हैं जो उन्होंने अपने शिष्यों को सदैव ही दिये। उनके सबसे प्रिय शिष्य का नाम आनन्द था।
अपने जिन शिष्यों को उन्होंने उपदेश करने की आज्ञा दी उन्हें ब्रह्मचर्य का पूर्ण निष्ठा से पालन करने वाला, दूसरों पर सदा दया भाव रखने वाला, दुःखियों के प्रति संवेदनशील तथा निःस्वार्थ, मखौलादि व्यसनों में रूचि न रखने वाला, अपने कहे अनुकूल सच्चे धर्म का अनुसरणकर्त्ता, जो लोग छोटे विचारों के तथा बदनीयत, बदचलन हैं, उनसे सदैव बचने वाला, सदैव प्रेमयुक्त सुहृद व शुद्ध आचरण वाला, मान तथा अपमान में सम तथा ऐसी चाल चलने वाला हो जिससे उसकी व्यक्तिगत् रूचियों तथा चरित्र पर कोई अगुंली न उठा सके। उसे अपने यश, नाम तथा मत प्रसार का लोभी नहीं होना चाहिये। सदैव ही सत्यनिष्ठ, ऐसे उपदेशक की सदा यही कोशिश हो कि मानव समुदाय में प्रेम तथा सौहार्द्र बढ़े। झगड़े-झझंट, द्वेष तथा वैमनस्य की वृद्धि न हो। वह सदैव गेरूये स्वच्छ वस्त्र धारण करें तथा परम वैराग्यवान हो। उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख कोई नही है जो सदैव अपनी योग्यता तथा गुणों का स्वयं ही यशोगान करता रहे। वह सदैव ही सत्य में स्थित रहे तथा देह को मिथ्या जाने।
भगवान गौतम बुद्ध ने समाधि पूजन का कड़ा विरोध किया है। एक निराकार निरअवयव व्यापक चैतन्य ही ईश्वर है और इस चिर सत्य को आकार में देखने की चेष्टा करने से सत्य की प्राप्ति में विघ्न पड़ जाता है। इन्द्रिय निग्रह तथा पुण्य सचंय से चित्त की शुद्धि ही सच्चा देव प्रसाद है। संसारी इस गुण में लाभ चाहे न भी देखें परन्तु इस प्रकार की विरत्तफ़ पुण्यात्माओं से इस संसार को लाभ अवश्य ही होता है। सबका उपकार करना, सब पर निष्काम प्रीति रखना, इन गुणों से चित्त का द्वेष स्वतः निकल जाता है तथा स्वार्थ परकता भी दूर हो जाती है। जो व्यक्ति स्वः सुख को सर्वोपरि माने तथा अपने सुख को ही सदैव प्रमुख जाने उससे छोटा तथा ओछा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।
परोपकार में प्रवृत्ति ही सच्चे बुद्धत्व का उदय है। बुद्ध का अर्थ परमेश्वर है और बुद्ध नाम मुक्तस्वरूप सर्वज्ञ योगी का भी है। शुद्ध धर्म का प्रकाश छल-कपट तथा अहंकार को स्वयं ही तिरोहित कर देता है। मनुष्य सदैव ही शुभ कर्मों का प्रयास करें। मैत्री, करूणा मुदिता तथा उपेक्षा में ही संत सदा विहार करता है। यही ब्रह्मविहार है। दृढ़ ब्रह्म ही मोक्ष का साधन है। जिसका ब्रह्मचर्य सिद्ध हो चुका है वह चाहे नैष्ठिक हो, वानप्रस्थी हो या फिर सन्यासी हो, उसके लिये संसार में असम्भव कुछ भी नहीं है। चित्त की चेष्टाओं को रोकना तथा सभी पाप संकल्पों को निकालना ही सच्चा योग है।
शरीर आत्मा नहीं है। यह तो गंदगी का ढे़र है इसमें आसक्ति बुद्धि से बड़ी जड़ता दूसरी नहीं है। जिसके मन में वैर भाव नही है वही जीव मात्र से प्रीति कर सकता है। काम, क्रोध तथा मोह ही सभी पापों का मूल है। चित्त को बल पूर्वक रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार तथा विज्ञान नामक पंच स्कन्धों से विमुख करना चाहिये। ये ही मन, वचन, कर्म तथा चिन्तन से सभी दुखों का मूल है। छल इन्द्रियां ही आयतन हैं। इनका निग्रह ही अष्टांग योग की सिद्धि है। सच्चा धर्मनिष्ठ सभी जीवों पर सदा ही स्नेह रखता है क्षमाशील होता है। वासना मुक्ती से ही दानशीलता का उदय है। स्वार्थ सिद्धि के त्याग में ही परमार्थ के बीज हैं। ऐसे कई उपदेश भगवान बुद्ध ने समय-समय पर अपने शिष्यों से कहे हैं जिनका व्यापक संग्रह बुद्ध सूत्र में हैं।
भगवान बुद्ध की अधिष्ठात्री देवी भगवती तारा थीं। उन्होंने राज्य सुख, पतिव्रता स्त्री सुख, पुत्र, धन-ऐश्वर्य तथा सम्पूर्ण सुखों का त्याग करके, तप तथा कठोर योग साधना से ईश्वर में प्रेम तथा आत्मसाक्षात्कार लाभ पाया। वे परम् कल्याणकारी एवं वेदान्तमूर्ति पद को प्राप्त एक सच्चे महात्मा तथा पूर्ण अवतार ही थे इसमें कोई संशय नहीं है।
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