जन-मानस में जो कृष्ण की छवि है, वह उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करती है और उनके ईश्वर होने से अथवा उनमें 'ईश्वरत्व' के होने से इन्कार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि जिन कलाओं का आरम्भ ही अपने-आप में ईश्वर होने की पहचान है——फिर वे तो सोलह कला पूर्ण देव पुर देव पुर " वे आज भी जन-मानस में जीवित ही हैं।
" किन्तु सत्य को न स्वीका größer "
सुदामा जीवन पर्यन्त नहीं समझ पाये कि जिन्हें वे केवल मित्र ही समझे थे, वे कृष्ण एक दिव्य विभूति हैं और उनके माता-पिता भी तो हमेशा उन्हें अपने पुत्र की ही दृष्टि से देखते रहे तथा दुर्योधन ने उन्हें हमेशा अपना शत्रु ही समझा। इसमें कृष्ण का दोष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कृष्ण ने तो अपना सम्पू्ण जीवन पूsal णत के साथ ही जिया।।।। जिया। "
" जहां उन्होंने प्रेम त्याग और श्रद्धा जैसे दुरूह विषयों को समाज के सामने रखा, वहीं जब समाज में झूठ, असत्य, व्याभिचार और पाखंड का बोलबाला बढ़ गया, तो उस समय कृष्ण ने जो युद्धनीति, रणनीति तथा कुशलता का प्रदर्शन किया, वह अपने-आप में आश्यर्चजनक ही था।
" उन्होंने अर्जुन का मोह भंग करते हुय कहा
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Die Weisen trauern nicht um die Toten oder um die Toten.
'हे अर्जुन! तू कभी शोक करता है, कभी अपने आप को विद्वान भी कह ता " "
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कृष्ण ने स्वयं अपने मामा कंस का वध कर, अपने नाना को कारागार से मुक्त करवा कर उन्हें पुनः मथुरा का राज्य प्रदान किया और निर्लिप्त भाव से रहते हुये कृष्ण ने धर्म की स्थापना कर सदैव सुकर्म को ही बढ़ावा दिया। " " "
कृष्ण ज्ञानार्जन हेतु सांदीपन ऋषि के आश्रम में पहुँचे, तब उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण कर ज्ञानार्जित किया, गुरू-सेवा की, साधनाये की और साधना की बारीकियों व आध्यात्म के नये आयाम को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया। "
" कृष्ण द्वारा दी गई योगविद्या जिसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग के साथ-साथ सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण का जो ज्ञान दिया, उसी के कारण आज गीता भारतीय जनजीवन का आधारभूत ग्रंथ बन गई, इसीलिये तो भगवान श्रीकृष्ण को 'योगीराज' कहा जाता है।
" जो व्यक्तित्व सोलह कला पूर्ण हो, वह केवल एक व्यक्ति ही नहीं, एक समाज ही नहीं, अपितु युग को परिवर्तित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है और ऐसे व्यक्तित्व के चिंतन, विचार और धारणा से पूरा जन समुदाय अपने आप में प्रभावित होने लगता है ।
" जो कोई इनकी पूजा अर्चना करते है, उन्हें साक्षात 'ब्रह्म' कहते है, उन साक्षात भगवान कृष्ण ने तो कभी भी जीवन में कर्म की राह नहीं छोड़ी उनके जीवन का उदाहरण, हर घटना, प्रेरणादायक है, इसीलिये उन्हें योगेश्वर कृष्ण कहा गया है।
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Wo ist Krishna, der Herr des Yoga, wo ist Partha, der Bogenträger?
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर, ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।्मतिर्मम।ो
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" , कृष्ण की नीति, आदर्श एवं मर्यादा का चरम रूप न होकर व्यावहारिकता से परिपूर्ण होकर ही दुष्टों के साथ दुष्टता का व्यवहार तथा सज्जनों के साथ श्रेष्ठता का व्यवहार, मित्र और शत्रु की पहचान किस नीति से किस प्रकार किया जाये, यह सब आज भी व्यावहारिक रूप में हैं।
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