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सद्गुरूदेव ने कहा था कि मुझे तो आवश्यकता है जीवन्त शिष्यों की जो मुझ में आकर समा जाये, मैं बाहें फैलाये खड़ा हूँ और जहां कोई शिष्य अपने ही बन्धनों द्वारा, संशय द्वारा मृत हो गया, वह सद्गुरू रूपी समुद्र में स्थायी भाव से नहीं रह सका , उसे किनारे पर आकर गिरना ही पड़ा। " वहां मन से बुझे निर्जीव शिष्यों के लिए स्थान नही
तुम्हारी इस मृत देह को प्राणो का स्पन्दन चाहि ये और यह तभी हो सकता है, जब मेरे प्राणों को अपने ह अन्दर अपने आप को समाह ित कर सको, मेरे इस आनन्द के प्रवाह में मस्ती के स ाथ स्नान कर सको।
जब तुम अपने को.
" देने की औ औ जब तुम.
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