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" जब गुरू अपने शिष्य को हजारों लोगों की भीड़ में अपने-सामने आसन पर बिठा कर उसे पवित्र और दिव्य बनाकर 'दिव्य पात क्रिया' से उसके प्राणों को चेतना प्रदान करता है, उसकी सुप्त कुण्डलिनी को जाग्रत करता है और अपनी दुर्लभ संचित साधानात्मक ऊर्जा अंश विशिष्ट ऊर्जा शिष्य के नेत्रें के द्वारा उसके प्राणों में समाहित करता है और ऐसा करते ही जिस प्रकार लोहे का टुकड़ा चुम्बक से घर्षण करने पर खुद चुम्बकीय बन जाता है, उसी प्रकार वह मूढ़ और सिद्धि-हीन शिष्य अचानक दिव्य और उदात्त बन जाता है, " "
निश्चय ही शिवशक्ति युक्त शांम्भवी दीक्षा एक कठिन क्रिया है, परन्तु समर्थ गुरू अपने शिष्य पर प्रसन्न होकर ऐसा करता ही है, ऐसा करते ही शिष्य के लिये सब कुछ संभव हो जाता है, समस्त सिद्धियां उसके लिये संभव प्रतीत होती हैं और उसके प्राण गुरू के .
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