गुरू शिष्य को अपने समान बनाने का प्रयास करते ह ैं और इसी कारण से उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप स्वरूप धारण करना पड़ता है, परन्तु यह श िष्य की अज्ञानता होती है, जो वह गुरू को सामान्य रूप में देखता है, उसके लिये ऐसा चिंतन दुर्भाग्य पूर्ण होता है।
" " इसलिये शिष्य के हृदय पटल पर एक ही नाम अंकित हो-रूु! उस के मुख पर एक ही शब्द हो गुरू।
" इसलिये शिष्य को सदा गुगु के शब्दों का पालन कका ही चाहिये। वहीं उसके लिये श्रेयष्कर है, श्रेष्ठ है।
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हजाों लाखों व्यक्तियों में वि विविा होता है सद सद्गु की अंगुली पकड़क आगे आगे बढ़ता है, जो व वाणी को समझ सकता है वही शिष्यत्व के पsprechend प का सकता सकता सकता सकता सकतसकता सकता सकता। ।sprechung
गुरू के ज्ञान को किसी प्रकार खरीदा नहीं जा िाी "
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