सद्गुरू जो भक्त और भगवान के बीच की एक कड़ी है, जो भक्त को भगवान तक पहुँचने का सरल और सहज रास्ता बताता है, और उस रास्ते पर अग्रसर करते हुये, उसे परम पिता परमात्मा में लीन कर देता है यही विशिष्ट कार्य होता है उसका, जिसके लिये.
" " सद्गुरू का जन्म तो होता ही इसीलिये है।
प्रत्येक युग में एक ज्ञान की चेतना का पुँज हमारी आंखों के सामने अवतरित होता है और अपने ज्ञान, अपनी चेतना, अपने चिन्तन और धारणा को समाज के सामने प्रस्तुत कर वापिस लौट जाता है, लुप्त हो जाता है- कृष्ण, जिन्हें जगत गुरू कहा गया , वशिष्ठ, द्रोणाचार्य, बुद्ध, शंकराचार्य इत्यादि ऐसे अनेकों गुरूओं ने इस धरा पर जन्म लिया जिन्होंने इस धरा पर ज्ञान को फैलाकर मानव जाति को जाग्रत करने का अदम्य प्रयास किया और इसी कार्य में प्रतिपल संलग्न रहे। उनका ध्येय केवल मात्र इतना ही था कि मानव वास्तविक ज्ञान से, वास्तविक सत्य से वंचित न रह जाये यह बात और है कि हम समय रहते उन युग पुरूषों को पहचान नहीं पाते और उन स्वर्णिम क्षणों को गंवा बैठते है, जो क्षण हमें उनकी सामीप्यता प्राप्त कर, उनके साहचर्य में बिताने चाहिये।
" भी मनुष्यों के कल्याण के लिये अपने क क क की एक-एक बूंद को बहा देते हैं।।
किन्तु इतना होने पर भी हम उनकी कितनी सुन पाते हैे? यों तो हम कह हैं कि उनकी. "
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" ऐसे सशक्त, मजबूत वृक्ष की छाया के आने वाला प्त्येक शिष्य शीतलता प्राप्त कβ है जीवन की धूप।।।।।।।।।।।। हव हव हव हव हव हव हव हवchte
गुगु पूपू्णिमा पप्व इन्हीं भावों को क क का महाप्व है, गुा महिमा का साक्ष्कार ककक का चिंतन है।।।।।।।। साक्ष्कार " " "
" क्योंकि सद्गुरू को देखकर ही हम उस परम सत्ता परमात्मा को पहचान सकते हैं, उससे साक्षात्कार कर सकते हैं, उससे एकाकार हो सकते हैं, पर उस सर्वोच्च सत्ता में अंगीकार कराने का माध्यम तो वही एकमात्र सद्गुरू होता है, जो मनुष्यों के बीच उन जैसा बन "
" उसके भीतर ही प्रस्तुत है, जो मिट नहीं सकता, जो शाश " इसके लिये आवश्यकता है तो समय रहते उस व्यक्तित्व को पहचान लेने की, पूर्णरूप से अपने आप को उनके चरणों में समर्पित कर देने की, आवश्यकता है श्रद्धा और विश्वास की, क्योंकि तभी उस उच्चता तक पहुँचा जा सकता है, तभी उस परमात्मा से साक्षात्कार किया जा सकता है।
भौतिक और आध्यात्मिक संतुलन को बनाये रखते हुये उस उच्चता तक पहुँचना, उस ब्रह्म से एकाकार होना ही तो श्रेष्ठ जीवन कहलाता है और ऐसा दिव्य अवसर प्राप्त होता है गुरू पूर्णिमा पर यही वह अवसर है, जब शिष्य गुरू से अपने भाव व्यक्त, उनके वरदहस्त को सदा-सदा के लिये प्राप्त कर लेता है, अपनी जीवन की न्यूनता के संहार की कामना लेकर जब वह गुरू चरणों में पहुँचता है, स्वतः ही उसके महा-जीवन के नवीन निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। यदि.
Meditationsmethode
गुरू पूर्णिमा महापर्व 24 जुलाई या किसी भी गुरूवार की प्र्रातः काल स्नानादि से निवृत्त होकर पीली धोती और गुरू चादर धारण करे। " " "
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